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Thursday, December 29, 2011

कबाब में हड्डी !



उद्विग्न,शिशिर,तिमिर व्योम की भी आँखे भर-भरा आई,
प्रीति पर ग्रहण लगा, जब निष्कपट प्रेम बीच धरा आई !


तोड़ डाला बेदर्दी से निष्ठुर ने, आशिक-मासुका का दिल,
जननी धीर की, क्यों उसको उनपर, रहमत न जरा आई !


दिनकर चला था करने,दीदार उसके हुस्नो-शबाब का,
योवन की इक लहर आई, शशि बनके अप्सरा आई !


सज-संवर,खिले मुख यों सम्मुख खड़ी थी आदित्य के,
ज्यों नज़्म फिर घूमकर वापस मुखड़े पे अंतरा आई !


इत्तेफाक देखता रहा चिलमन में दम तोडती संवेदना 'परचेत',
प्रेम-बंधनों में विरक्ति लाने की यह कैसी परम्परा आई !

Wednesday, December 28, 2011

यही वो पाप है जिसपर,जुर्माना नहीं लगता !

घर घराना नहीं लगता, सफ़र वीराना नहीं लगता,
ठट्ठा खाते-खाते अब तो, ताना,ताना नहीं लगता !



घुसे हैं जबसे डोमिनो,इटैलियन,चाइनीज पकवानों में,
'लजीज'गुम-शुदा हो गया, खाना, खाना नहीं लगता !



अपने-पराये के रिश्तों को,जख्म इतना उलझा गए,
लगते है यहाँ सभी अपने,कोई बेगाना नहीं लगता !



अंक अल्पतर पड़े जबसे,अपने उम्रदराज ऐनक के,
बहुत जाना हुआ चेहरा भी,अब पहचाना नहीं लगता !



चतुर करार दिया मुझको,मेरे प्राण-बीमा कराने पर,
यही वो पाप है 'परचेत'जिसपर,जुर्माना नहीं लगता !(*)







नोट : इस गजल को मुख्य ब्लॉग पर देखने हेतु कृपया गजल के शीर्षक पर क्लिक करें !





(*)उलटे मुआवजा मिलता है, घरवालों को :)

Tuesday, December 6, 2011

कौतुक स्वांग !


झुकी पलके उठाकर के, खुली जुल्फें सवारेगी,
कजरारे मस्त नयनों से नरम परदा भी तारेगी,

एक रोज बैठकर अपने, अरमानों की डोली में,
नुक्कड़ से गुजरते साक़ी जब मधुशाला निहारेगी !

हाला अंगूरी नादाँ, जो हर ख्वाइश पे मरती थी,
फलक पे खड़े-खड़े अपनी किस्मत पर विचारेगी !

दिलजले आतुर खड़े होंगे, पीने को कतारों में,
तंदूर पर तड़पते मुर्गे को वो प्यासा ही मारेगी !

गमजदा महलों के वाशिंदे भी, हैराँ-परेशाँ होंगे,
मुग्ध-मुद्रा में उन्हें 'आइये हुजूर' कौन पुकारेगी !

Monday, December 5, 2011

पशोपेश !






मुकद्दर की लकीरों से
तेरे नाम के महल का

एक ख़ूबसूरत आरेखण

मैंने भी सजाया था,

और चला था मैं

हिमालय के ठीक सामने

यादों की वह

मनचाही

ऊँची मीनार

खडी करने !

मगर दिल के जज्बात

कब इन्तकामी हो गए,

नहीं मालूम !!







Thursday, December 1, 2011

प्यासा हलक !


एक मंझे हुए, कुशल


आखेटक की भांति,
टकटकी लगाए

तकती रही वो तब तलक !
कमवक्त एक तरसाती बूँद,
पा नहीं गया जब
उसका तड़पता जिस्म
और प्यासा हलक !

वक्त सचमुच
बहुत बदल गया है ,
जभी तो,
जरूरत पर अक्सर
अब बादल भी
बेवफाई कर जाते है,
और धरा के कंठ से
दूर पहाड़ों पर
मीठे जलगीत भी नहीं फूटते !!





Friday, November 18, 2011

वृद्धत्व व्यथा !

उजड़ी-उजड़ी,

बिखरी गुमसुम सी

वह बगिया जिसमें,

फूलों की चाहत में

मिलकर बोये थे

इने-गिने बीज हमने कभी ,

पता नहीं शूल कैसे उग गए वहाँ !

यूं तो उन्हें अब

उपेक्षित ही रखता हूँ,

मगर राह चलते कमवक्त

वक्त-बेवक्त पैरों को

जख्म दे ही जाते है!

तुम्हारी हिदायतों के मध्यनजर

शब्द तो अक्सर खामोश ही रखे मैंने,

किन्तु जाने क्यों

चंद अश्रुओं के झुण्ड,

डगर पर चहलकदमी को

फिर भी निकल ही पड़ते है !!

Tuesday, October 25, 2011

यथास्थिति !

एक मरियल सा माली है, बगिया में बदहाली है,
दस्यु सुन्दरी नचा रही, वादक गुंडा और मवाली है !
दरोगा घर भर-भर रहा,चोर तिजोरी साफ़ कर रहा ,
निष्कपट बैठा लुटा-पिटा, कपटी के घर दीवाली है !
शठता की चकाचौंध में नेकता,नैन-दृष्ठि खो बैठी है,
सावन के अंधे की मति में, हरयाली ही हरियाली है !
सबल बेख़ौफ़ होकर इतराए,दुर्बल को क़ानून डराए,
भैंस हांक ले वही जा रहा अब, जो यहाँ बलशाली है !
न्याय नित पैंतरे बदलता,छानबीन का नाटक चलता,
दाल में काला क्या ढूढें , जब पूरी दाल ही काली है !!





आपको दीपावली की हार्दिक शुभ-कामनाएं !


Monday, September 19, 2011

अबूझ !




तुम जब भी देखोगे
मेरा चेहरा,
तुम्हे सिर्फ और सिर्फ
हंसी ही बिखरी नजर आयेगी,
क्योंकि, नयनों से निकले
तमाम मोतियों को,
दिल के समंदर में
सीपियाँ समेट ले जाती है !

ये बात और है कि
खिली धूप में भी
कभी न कभी
जीवनपथ पर,
बारिश की फुहारों के
हम चश्मदीद तो बनते ही है !!

Sunday, June 5, 2011

खुदा लगता है नजर से भी गया,और कान से !

उदर भरता नहीं इनका, मौद्रिक रसपान से,
हैवान बन गए हैं नेता, नौकरशाह, इंसान से  !
शरीक होकर भी अपने, अंतिम संस्कार में,
लौट आते है ये कमवख्त, फिर शमशान से !!
 दिमाग के खाली है, चाल-चरित्र से ढीले है,
खेलते है हर खेल अपना, कुटिल जुबान से !
अपहृत कर लिया प्रजातंत्र, इन बटमारों ने,
बेवश सा देख रहा रखवाला,खडी मचान से !!
 सत्र चलता है बेशर्मों का, अब रोज तिहाड़ से,
भूखा गरीब  पोषता  इन्हें, कर और लगान से !
 वो जाए कहाँ, जिसको प्यार है देश से 'परचेत',
खुदा लगता है नजर से भी गया,और कान से !!

Monday, May 16, 2011

दास्ताने टेररिस्तान !

नाम पाक, मंसूबे निर्मम नापाक,

लत संत्रास स्वाद की,

सब झूठे,मक्कार, स्तुति करूँ क्या

किसी एक-आद की !        

पिद्दीभर एबटाबाद तो अपना

इनसे सम्भाला न गया,

और कंगले, बात करते फिरते थे

हमारे अहमदाबाद की !!  


बीज जैसा, पौध वैसी, उसपर

खुराक द्वेष-खाद की,  

छीनकर दुनिया का अमन-चैन,

सुख-शांति बर्बाद की !

कांटे खुद बोये,दोष हमें दिया,

अरे कायरों ! हम तुमसा

दाऊद-ओसामा नहीं पालते,

ये भूमि है गांधी, बोष,

राजगुरु, भगतसिंह, आजाद की !!


जिन्दगी की गाडी, सुबह से शाम तक जाम में फंसी है,
मंजिल-ए-सड़क, नाकामियों की दल-दल में धंसी है, !
राह में जिसे मौक़ा मिला, साला  ठोक के चला गया,
अब तो, कभी खुद पे, कभी हालात पे आती हंसी है!!   
      


































Friday, April 1, 2011

अप्रैल फूल !

गिरह बांधी है मिसरे की, मतले से मक्ते तक दर्द ने,
तुम कहो, न कहो, मगर बात कह दी चेहरे की जर्द ने !

पतझड़ में इस कदर पत्ता-पत्ता, डाली से खफा क्यों है,
नाते नए पैदा कर दिए क्यों, रिश्तों पर जमी गर्द ने !!

बुलंदियां पाने की चाह में, तहजीब त्यागी क्यों हमने,
गिरा दिया कहाँ तक हमें, हसरत-ए-दीदार की नबर्द ने !

हासिल होगा क्या तेरे, सरे-जिस्म पर से पर्दा हटाने से,
माल की गुणवत्ता तो बता दी, प्रतिरूप नग्न-ए-अर्द्ध ने !!

हमें तो हरेक दिन तबसे'फूल'ही नजर आता है'परचेत',
पर्दा करना व बुर्का पहनना, शुरू कर दिया जबसे मर्द ने !!

Monday, March 28, 2011

कुरुर पुनरावृति !


शर्मो-हया गायब हुई,
आंख,नाक,गालों से,
गौरवान्वित हो रहा,
अब देश घोटालो से ।

विदुर ने संभाला है,
अभिनय शकुनि का,
हस्तिनापुर परेशां है,
गांधारी की चालों से ॥

द्यूत क्रीड़ा चल रही,
घर,दरवार,जेल मे,
पांसे खुद जुट गए,
शह-मात के खेल मे ।

इन्द्र-प्रस्थ पटा पडा,
कुटिल दलालों से,
हस्तिनापुर परेशां है,
गांधारी की चालों से ॥

एकलव्य का अंगूठा,
बहुमूल्य हो गया,
दक्षिण का रंक-ए-
राजा तुल्य हो गया ।

यक्ष भी हैरान है,
करुणाजनित जालों से,
हस्तिनापुर परेशां है,
गांधारी की चालों से ॥

गरीब-प्रजा से भी,
लगान जुटाने के बाद,
सफ़ाई के नाम पे,
अरबों लुटाने के बाद ।

गंगा-जमुना मजबूर है,
बहने को नालों से,
हस्तिनापुर परेशां है,
गांधारी की चालों से ॥

युवराज दुर्योधन है,
ताक मे सिंहासन के,
चीरहरण को आतुर है,
हाथ दू:शासन के ।

बेइज्जत हो रही द्रोपदी,
खाप-चौपालों से,
हस्तिनापुर परेशां है,
गांधारी की चालों से ॥

कहीं ढूढना न फ़िर,
अर्जुन-कान्हा पड़े,
इतिहास महाभारत का
न दुहराना पड़े।

कुरुक्षेत्र लहुलुहान न हो,
बाण-भालों से,
हस्तिनापुर परेशां है,
गांधारी की चालों से ॥

Tuesday, March 22, 2011

होली का रंग !

वो पहली ही मर्तबा ले गई थी,
मुझे मेरे घर से भगा ले गई थी!
गले मिलने की जिद पर उतरकर ,
मुझसे दिल अपना लगा ले गई थी !!

जवाँ-गबरू, गाँव का पढ़ा-लिखा,
शरीफ सा, भोला-भाला जो दिखा,
माँ-बाप को मेरे दगा दे गई थी !
मुझे मेरे घर से भगा ले गई थी !!

अपनी ही दुनिया में खोया-खोया,
जमाने के रंगों से बेखबर सोया,
पिचकारी मारके जगा ले गई थी !
मुझे मेरे घर से भगा ले गई थी !!

होली खेलन का बस इक बहाना था,
असल मकसद तो ढूढना कान्हा था,
चतुरनार भोले को ठगा ले गई थी!
मुझे मेरे घर से भगा ले गई थी !!


आप सभी को होली की ढेर सारी शुभकामनाये !

Friday, March 11, 2011

साकी को न जब तलक,इस बात का मलाल होगा !



साकी को न जब तलक,

इस बात का मलाल होगा,

मयखाने पर हर मुर्गा,

प्यासा ही हलाल होगा !



मिलेगी न तृप्ति हरगिज,

अतृप्त इस पियक्कड़ को,

हलक इसके घुटन होगी,

दिल बद्दतर हाल होगा !

साकी को न जब तलक........!!



सोचा न था जिसने कभी,

पैमानों की भीड़ में,

छलकते हुए हर जाम पर,

सर भी इस्तेमाल होगा !

साकी को न जब तलक........!!



तबेला बना हो चौराहा,

टुन्न आवारा पशुओं से,

मय के प्याले भर-भरके,

बांटता हर पंडाल होगा !

साकी को न जब तलक........!!



कहीं बीच ढोल-आतिशों के,

डगमगायेंगी कुछ पायले,

संग पगड़ियों के उछलता,

इज्जत का सवाल होगा !

साकी को न जब तलक........!!



शामे-गम को जब कभी,

सन्नाटे से दहशत लगे ,

खर्राटों के सिरहाने कहीं,

खिन्न कुमकुम लाल होगा !

साकी को न जब तलक........!!



पलकें भीग जायेंगी जब,

किसी बेमौसमी बारीश में,

गेसुओं के घने दश्त से,

शिकस्तगी का जमाल होगा !

साकी को न जब तलक........!!



आबाद बना रहे सदा,

साक़ी तेरा ये मयकदा,

एक कोने पर बाप बैठा,

दूसरे धुत लाल होगा !

साकी को न जब तलक........!!



मय मिलाकर इश्क में,

दोनों पियेंगे संग मिलकर,

तेरे मयकदे की कसम,

नजारा बेमिसाल होगा !



साकी को न जब तलक,

इस बात का मलाल होगा,

कि मयखाने पे हर मुर्गा,

यूँ प्यासा ही हलाल होगा !!


छवि गुगुल से साभार

उम्मीद !

गुल खिलेंगे, चमन गुलजार होगा,
ख़त्म यह तमाम भ्रष्टाचार होगा।
न दिलों में मैल, न राग-द्वेष होगा,
देश में हर ओर अमन,प्यार होगा।
न मुल्ला , मुथालिक न खाप होगा,
हुश्न और इश्क सबका बाप होगा।
संसद, असेम्बली के गलियारों में,
हर सत्र में तब मौसमे-बहार होगा।
गुल खिलेंगे, चमन गुलजार होगा,
देश में हर ओर अमन, प्यार होगा।।

अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम !

अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम,
अपना सब कुछ वारा-न्यारा करों,
दुनिया बड़ी रंग-रंगीली है पगली,
इसे कनखियों से यूं न निहारा करो.
अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम.... !

प्यार क्या है, किसी को आता नहीं,
बेवफ़ा जहां को तो प्रेम भाता नहीं,
बहरा नहीं कोई तेरे इस शहर में,
नाम लेकर तुम यूं न पुकारा करो..
अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम....!

अक्सर ही घर के छज्जे में आकर,
दुपट्टे का पल्लू हौले-हौले हिलाकर,
शीशे को तसदीका आशिक बनाकर,
यूँ न गेसुओं को अपनी सवारा करों.
अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम....!

तनहापन में तुम ख़्वाबों में खोकर,
सिरहाने रखी तकिया को भिगोकर,
शक्ल देते हुए ख्वाइशों,ख्यालों को
ऐसे उनींदी न रतियन गुजारा करो.
अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम....!

wife is the subject matter of solicitation.

When I was asked by my friends,
"What is the secret behind your happy married life?"
I earnestly replied that I am faithful to my wife.
On our wedding day,
while leading her in seven steps around the sacred fire,
the priest gave me following five commandments
for a successful married life;
If you find in yourself a desire,
Abundance of resources and comforts,
for her, it is necessary for good equation,
because wife is the subject matter of solicitation.
To maintain a blooming marital life,
you need to constantly work on your relation,
because wife is the subject matter of solicitation.
To make you feel good keep her eternally happy,
and avoid irritation and frustration,
because wife is the subject matter of solicitation.
Be nice and polite in front of her,
and always try to control your stimulation,
because wife is the subject matter of solicitation.
And finally, during any festival, to your in-laws,
you must not forget to extend your felicitation,
because wife is the subject matter of solicitation.

सार:
पारिवारिक जीवन अगर खुश रखना है ,
अपने जीवन साथी
के प्रति वफादार बनिए ,
जरा-ज़रा सी बातो के लिए,
हरगिज ना तनिये ,
इसी में अस्तु है , तथास्तु है !
क्योंकि बीवी आग्रह की विषयवस्तु है !! :) :)

इश्क जिस रोज हुस्न की मजबूरी समझ लेगा !

इश्क जिस रोज हुस्न की मजबूरी समझ लेगा,
प्रेम उसी रोज अपनी तपस्या पूरी समझ लेगा।

छलकते हुए, लबों से हरगिज तबस्सुम ना बहे,
पैमाना प्यार का जब यह जरूरी समझ लेगा।

गर दिल,ख्वाइशों को मचलने की वजह ही न दे,
पलक झुकाने को ना हवस मंजूरी समझ लेगा।

सच्चे प्यार में हुस्न, मंज़िल-ए-इश्क से क्यों डरे,
प्रणय-सूत्र दरम्यान उनकी हर दूरी समझ लेगा।

अगर हुस्न जागता रह गया इंतज़ार-ए-इश्क में,
प्रीत की ये गजल 'परचेत',अधूरी समझ लेगा।

ऋतुराज वसंत !













प्रकृति छटा
सुशोभित अनंत है,
आ गया फिर
ऋतुराज वसंत है !

कोंपल कुसुम
सुगंधित वन है,
समीर सृजन
शीतल पवन है !

मंद-सुगंध सृजित
वात-बयार है,
सुर्ख नसों मे हुआ
रक्त संचार है !

हर सहरा ओढे
पीत वसन है,
जीवंत भया
अभ्यारण तन है !

दरख्तों पर
खग-पंछी शोर है,
कोमल सांस
कशिश पुरजोर है!

शिशिर शीत
सब कुछ भूली है,
खेत सुमुल्लसित
सरसों फूली है !

सफ़ल कंपकपाती
सूर्य साधना है,
श्रीपंचम पर
सरस्वती अराधना है !

गूंजी फिजा मे
सुवासमय खास है,
खारों मे भी
लहरा रहा मधुमास है !

सुरम्य वादियों का
यही आदि-अंत है,
आ गया फिर से
ऋतुराज वसंत है !

Day dream!

I don't mind
a little immaturity,
when my mind stumble
like a buffoon,
It's neither political
or social,
nor a scurrilous lampoon.
frankly speaking,
I'm completely fed up
with this world,
thus, I'm gonna float
a billion dollar tender
in the market soon.
I'm willing to construct
a fly-over,
from earth to moon.

Your cooperation in this regard is highly solicited.

या रब, डिवाइन किया कर !

जिन्दगी पहेली न बन जाए,डिफाइन किया कर,
कभी आरजू न किसी की डिक्लाइन किया कर !

परेशां हो क्यों भला कोई यहाँ जीवन सफ़र में,
या रब, मुकद्दर को ढंग से डिजाइन किया कर !!

बैर पलता है अक्सर यहाँ दिल में हर किसी के,
उसे मुहब्बत की धार देकर रिफाइन किया कर!

लोगों को न जाने बिछड़ने की बुरी लत लगी है,
हर एक बिछड़े हुए को, बस कम्बाइन किया कर !!

तुझसे दुआ मांगने की,जग की आदत खराब है,
वक्त पे खुद सबको खुशियाँ कन्साइन किया कर !

चल रहा है सब कुछ यहाँ, जब तेरे ही भरोसे,
फिर कहीं खुशी,कहीं गम न कंफाइन किया कर !!

सीख इस्तेमाल कागज़ की !

मुझे जाने क्यों
ऐसा रहा था दीख,
इस्तेमाल कागज़,
कोरे कागज़ को
दे रहा था यह सीख !
उपयोगकर्ता, तुम पर लिखा
पसंद न आया तो
फाड़ डालेगा,
खीज में मोड़-मरोड़कर
भाड़ डालेगा !
यही दुआ मांगो कि
तुम्हे भी कोई वैसा रचनाकार मिले,
जैसा तुम्हारा मन करे,
स्व:कृति तुममे लिपि-बद्द कर,
आकर्षक,अलंकृत जिल्द में
तरतीब से आच्छादन करे !
कितना सुख मिलता है तब,
जब कोई सालीखे से
किताब का एक-एक पन्ना पलट कर
हम तक पहुचता है ,
और पढ़कर फिर
मनमोहक जिल्द के बीच,
ताउम्र संजो के रखता है !

पलायन !

कायनात की
कुदरती तिलस्म ओढ़े,
शान्त एवं सुरम्य,
उन पर्वतीय वादियों में
जंगल-झाड़ों को,
दिन-प्रतिदिन
सिमटते, सरकते देखा,
चट्टानों,पहाड़ों को
बारिश में
खिसकते,दरकते देखा !
काफल, हीसर,
किन्गोड़ से दरख्त
खूब लदे पड़े देखे,
वृद्ध देवदार,चीड,बांज
सब उदास,
खामोश खड़े देखे !

कफु, घुघूती,हिलांस
अभी भी बोलती है,
किन्तु उनकी मधुर स्वर-लहरी,
कोई सुनने वाला ही नहीं,
ग्वीराळ, बुरांस
अभी भी खिलता है,
पर सौन्दर्य,
खुशबुओं पर मुग्ध,
पेड़ की टहनियों से उसे
कोई चुनने वाला ही नहीं !
शिखर, घाटियाँ
जिधर देखो,
सबकी सब सुनसान,
वीरान घर, खेत-खलिहान,
गाँव के गाँव यूँ लगे,
ज्यों शमशान !
शनै:-शनै: लुप्त होते
कुदरती जलस्रोत ,
पिघलते ग्लेशियर,
तेज बर्फीली
सर्द हवाओं का शोर,
बारहमासी और बरसाती,
नदियों-नालों का प्रचंड देखा,
बहुत बदला-बदला सा
इस बार मैंने
अपना वो उत्तराखंड देखा !

जिन्दगी क्या है ?

जिन्दगी एक्सट्रीम है
उनके लिए,
जिन्होंने जीवन में
बेहिसाब पा लिया,
या फिर अनगिनत गवां लिया।

जिन्दगी एक ड्रीम है
उनके लिए,
जो जीवन में सिर्फ
है पाना ही पाना चाहते,
कुछ भी नहीं गवाना चाहते।

अगर यही सवाल
तुम मुझसे पूछोगे,
मैं तो बस यही कहूंगा कि
जिन्दगी आइसक्रीम है,
उसे तो वक्त के सांचे में
हर हाल में ढलना है,
तुम खाओ या न खाओ,
उसे तो पिघलना है।
इसलिए उसे
जितना खा सको खाओ, चाटो
अंत में सिर्फ दो ही बातें होयेंगी,
संतुष्ठी याफिर पछतावा॥
छवि गुगुल से साभार !

नाउम्मीद !








दूर ले गए थे
ये कहकर
वो उसे मुझसे,
कि महासागर के
बीचोंबीच स्थित
दो भिन्न ज़जीरों का,
मिलन संभव नहीं !
तब से आज तक,
क़यामत की उम्मीद
के सहारे ही
उम्र गुजर गई मगर,
न उसके द्वीप पर
कोई तीव्र भूकंप आया,
और न मेरे टापू पर सूनामी !!

Tuesday, January 25, 2011

अग्नि-पथ !

लुंठक-बटमारों के हाथ में, आज सारा देश है,
गणतंत्र बेशक बन गया, स्वतंत्र होना शेष है !
सरगना साधू बना है, प्रकट धवल देह-भेष है,
गणतंत्र बेशक बन गया, स्वतंत्र होना शेष है!!

भ्रष्ट-कुटिल कृत्य से, न्यायपालिका मैली हुई,
हर गाँव-देश, दरिद्रता व भुखमरी फैली हुई !
अविद्या व अस्मिता, अभिनिवेश, राग, द्वेष है,
गणतंत्र बेशक बन गया, स्वतंत्र होना शेष है!!

राज और समाज-व्यवस्था दासता से ग्रस्त है,
जन-सेवक जागीरदार बना,आम-जन त्रस्त है !
प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही,फिरंगी औपनिवेश है,
गणतंत्र बेशक बन गया, स्वतंत्र होना शेष है!!

शिक्षित समझता श्रेष्ठतर है,विलायती बोलकर,
बहु-राष्ट्रीय कम्पनियां नीर भी, बेचती तोलकर,
देश-संस्कृति दूषित कर रहा,पश्चमी परिवेश है,
गणतंत्र बेशक बन गया, स्वतंत्र होना शेष है!!

Friday, January 21, 2011

मातृ-भूमि की पुकार !








तुम्हे मादरे हिंद पुकार रही है,उठो सपूतों,
तुम वतन के मसले पर, ढुलमुल कैसे हो !
बहुत लूट लिया देश को इन बत्ती वालों ने,
अब यह सोचो, इनकी बत्ती गुल कैसे हो!!

हर हाल, हमको इनसे देश बचाना होगा,
स्वावलंबन पथ पे नव-अंधड़ लाना होगा!
दूषण विरुद्ध हमारा बुलंद बिगुल कैसे हो,
अब यह सोचो, इनकी बत्ती गुल कैसे हो!!

एक और जंग हमको फिर लडनी होगी,
आजादी की उचित परिभाषा गढ़नी होगी!
अलख जगाये,उज्जवल आगे कुल कैसे हो,
अब यह सोचो, इनकी बत्ती गुल कैसे हो!!

जाति-धर्म,वर्ग वैमनस्यता छोडनी होगी,
दिल में वतन-परस्त भावना जोड़नी होगी!
देश-प्रेम का जर्जर, मजबूत ये पुल कैसे हो,
अब यह सोचो, इनकी बत्ती गुल कैसे हो!!



छवि गूगल से साभार

कैसा कलयुग आया देखो !

घनघोर अन्धेरा छाया देखो,
कैसा कलयुग आया देखो !
भद्र अस्तित्व को जूझ रहा,
शठ-परचम लहराया देखो !!

गोवा, बांदा, पूर्णिया देखो,
विधि-तंत्र चरमराया देखो !
डाकू बना विधायक घूमे,
लोकतंत्र शरमाया देखो !!

कुकर्मी निर्भय घूम रहे है,
दण्डित अबला काया देखो !
सृष्टि भूख से अति त्रस्त है,
केक काटती माया देखो !!

गगन खो रहा रंग अपना,
भू पर नील गहराया देखो !
जीवित तो उपचार रहित है,
मूर्ति पर धन बरसाया देखो !!

इंतियाज़ चरम को चूम रहा,
ऐसा राम-राज्य पाया देखो !
घनघोर अन्धेरा छाया देखो,
कैसा कलयुग आया देखो !!

गुजरे दशक का लेखा-जोखा !

शठ, रंक-राजा दुर्जनों का, काम देखा,काज देखा,
हमने ऐ सदी इक्कीसवीं,ऐसा तेरा आगाज देखा।

बनते हुए महलों को देखा, झूठ की बुनियाद पर,
छल-कपट, आडम्बरों का,इक नया अंदाज देखा॥

भरोसे को दर्पण दिखाया, विकिलीक्स-आसांजे ने,
छलता रहा जो दोस्त बन,हर वो धोखेबाज देखा।

अरसा गुजर गया कहने को, रजवाड़े त्यागे हुए,
जनतंत्र संग पल रहा,फिर भी एक युवराज देखा॥

मुंबई साक्षी बना, मजहबी नफ़रत-ए-जुनून का,
दहशती शोलों मे लिपटा, देश का वो ताज देखा॥

नमक,प्याज-रोटी, जो दीन-दुर्बल का आहार था,
खून के आंसू रुला गया, हमने ऐसा प्याज देखा।

असहाय माँ देखी शिशु को, घास की रोटी खिलाती.
बरसाती गोदामों में सड़ता, सरकारी अनाज देखा॥

फक्र था चमन को जिस,अपने तख़्त-ए-ताज पर,
चौखटे एक दबंग चंड की,दम तोड़ता वो नाज देखा।

उम्मीद है कि राम-राज लाएगा, आगामी तेरा दशक ,
माँ कसम,अबतक तो हमने,सिर्फ जंगल-राज देखा॥

दिल तू इतना नादाँ क्यों है !

ऐ मेरे वहशत-ए-दिल, मुझको बता, तू इतना नादाँ क्यों है,
एहसास-ए-जिगर गैरों को बताके ,फिर होता परेशाँ क्यों है।

छुपा न अब, जमाने पर यकीं करके तूने फरेब खाया है,
गर जख्म खाए नहीं, तो चहरे पे उभरते ये निशाँ क्यों है।

अपने ठहरे हुए मुकद्दर में, तू भी सुख का तिलिस्म ढूंढ,
जिन्दगी की रुसवाइयों से डरकर, हो रहा तू हैराँ क्यों है।

यूँ तो हर बिखरे ख्वाब को भी, शिकस्त का गम होता है,
पर सीने के सुलगते दोज़ख में, शीतल तेरे अरमाँ क्यों है।

जाम-ए-अश्क छलकने दे, जज्बातों का दम घुटने पर,
फिर कोई ये न कहे तुझसे, ऐसा अंदाज-ए-बयाँ क्यों है।

यादों के दरीचे खोले रख 'परचेत', धडकनों के आहाते में,
वजह रहे न कुछ कहने को, फासला इताँ दर्मियाँ क्यों है।

नीलामी !

काश कि

अगर मैं भी,

अपने ही कुनवे में

हर खिलाड़ी की तरह,

खिलाड़ी न आम होता !

इस देश के

क्रिकेटरों की तरह,

आज कौमियत की

किसी आईपीएल मंडी में,

मैं भी नीलाम होता !!

बोलियाँ लगती बड़ी-बड़ी,

इंसानियत तकती खडी-खडी,

धन-कुबेर दर खट-खटाता !

खुश होता गर,

मै भी

अच्छे भाव बिक जाता !!

आज, चूँकि जब

इंसान का हर ऊसूल,

घन-कुबेर पर ही

टिका हुआ है !

इसीलिये तो,

समूचे कुनवे का

मुखिया भी बिका* हुआ है !!







* एक इटालियन के हाथों

दुआ-शुभकामना !

राष्ट्र-सम्पदा को लूट खा रहा हर रंक, राजा बनकर,
जांच के मरहम से जख्म उभरे है और ताजा बनकर।
भेड़ की खाल में घूमते फिर रहे भेड़िये, गली-चौबारे,
कुटिलता, भद्रता पर हावी है, वक्त का तकाजा बनकर॥

गुजरा साल तो बस यूँ ही गुजर गया ;

दिवस तीन सौ पैसठ साल के, यों ऐसे निकल गए,
मुट्ठी में बंद कुछ रेत-कण, ज्यों कहीं फिसल गए।
दरमियां अवसाद धड़कन भी, दिल से बेजार लगी,
खुश लम्हों में जिन्दगी,चंचल निर्झरिणी धार लगी।
संग आनंद, उमंग, उल्लास कुछ आकुल,विकल गए,
दिवस तीन सौ पैसठ साल के, यों ऐसे निकल गए।
सुख-समृद्धि घर-घर आये,सबको ढेरों खुशियाँ मिले,
मंगलमय हो वर्ष नव, मन-उपवन आशा फूल खिलें।
लम्हा-लम्हा सबका रोशन होवे, अंधियारे ढल गए,
दिवस तीन सौ पैसठ साल के, यों ऐसे निकल गए।

सुण ओए वोट-बैंक सुण !

न आज देश बना, चोरो का निवाला होता,
न तख़्त-ए-ताज लुच्चों ने संभाला होता।
सुण ओए वोट-बैंक ,ऐसा दिन न आता,
वोट तुमने सोच-समझकर डाला होता॥

उपकार अपेक्षा व्यर्थ है भिखमंगो से,
दरवार को पाट दिया भूखे-नंगो से।
आज न भ्रष्टाचार का बोलबाला होता,
वोट तुमने सोच-समझकर डाला होता॥

ओंछे माई-बाप के चरण चूम रहे है,
हिस्ट्रीशीटर जन-प्रतिनिधि बने घूम रहे है।
पंक में धंसा न नीचे से ऊपरवाला होता,
वोट तुमने सोच-समझकर डाला होता॥

Thursday, January 20, 2011

नवगीत- हम भारत वाले! (रिमिक्स)

करलो जितनी जांचे,
आयोग जितने बिठाले,
नए साल में फिर से करेंगे,
मिलकर नए घोटाले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!

आज पुराने हथकंडों को छोड़ चुके है,
क्या देखे उस लॉकर को जो तोड़ चुके है,
हर कोई जब लूट रहा है देश-खजाना,
बड़े ठगों से हम भी नाता जोड़ चुके हैं,
बडे कार-बंगले, उजली पोशाके,
कारनामे काले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!

अभी लूटने है हमको तो कई और खजाने,
भ्रष्टाचार के दरिया है अभी और बहाने,
अभी तो है हमको समूचा देश डुबाना,
देश की दौलत से हैं नए-नए खेल रचाने,
आओ मेहनतकश पर मोटा टैक्स लगाए,
नेक दिलों को खुद जैसा बेईमान बनाए,
पड़ जाए जो इक दिन फिर
इमानदारी के लाले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!

करलो जितनी जांचे,
आयोग जितने बिठाले,
नए साल में फिर से करेंगे,
मिलकर नए घोटाले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!


जय हिंद !

अहसास !




ये बताओ,
तुम्हारे
उस बहुप्रतीक्षित
कुम्भ आयोजन का
क्या हुआ,
जो तुम्हारी
हुश्न, मुहब्बत
और वफ़ा की त्रिवेणी पर
अर्से से प्रस्तावित था ?

मैं तो कबसे
अपने मन को
इस बात के लिए
प्रेरित किये था कि
इस बार मैं भी
संगम पर,
जिगर के कुछ दाग
धो ही डालूँगा !

अब तो यही सोचकर
संयम पैरोंतले से
फिसलता नहीं
कि प्रतीक्षा करवाना
तुम्हारी पुरानी आदत है !!

मेरी बला से !

लड़कपन बिगड़ गया, माँ-बाप के लाड में,
यौवन में संग अंतरंग हम चढ़ गए झाड में।

कुछ ने तो पा लिया बुलंदियों को प्यार की,
कुछ रह गए जो हतभाग्य, वो गए खाड में।

अब दिखाते किसे हो ये भय बदनामियों का,
हम तो सदा यूँ ही प्यार करते रहेंगे आड़ में।

जी-भर के करेंगे मुहब्बत अपने हमनशीं से,
दर्द होवे चाहे जितना जगवालों की दाड में।

जमाना दे हमें जितना,अधर्मियों का ख़िताब,
हम तो हमेशा यों ही लगे रहेंगे जुगाड़ में।

देख हमको भला अब कोई नाक-भौं सिकोडे,
हमारी बला से,दुनिया जाये तो जाये भाड मे॥

हरामखोर !

भूखे-नंगे,लालची,हरामखोर परजीवी,
'पेट-भर' खा गए,
जो मेहनत का अपनी भरा था मैने,
वो 'कर' खा गए !

टूजी, सीडब्ल्युजी, बैंक,एलआइसी,
आदर्श 'हर' खा गए,
जो मेहनत का अपनी भरा था मैने,
वो 'कर' खा गए !!

कोड़ा, कारगिल,क्वात्रोची, आइपीएल,
चारा और हवाला,
तेलगी, हर्षद, केतन, राजु-सत्यम,
कर्नाटक जमीन घोटाला !

और तो और ये कारगिल शहीदों के भी
'घर' खा गए,
जो मेहनत का अपनी भरा था मैने,
वो 'कर' खा गए !!

कुल २० हजार खरब खा चुके,
हरामखोर कितना खाते है,
कर्म से तो हैं ही, शक्ल से भी ये
चोर नजर आते है !

अवैध निर्माण करके ये दिल्ली का,
'लक्ष्मीनगर' खा गए,
खुद अद्धपेट रहकर जो भरा था मैंने,
वो 'कर' खा गए !!

नई आश !

बेचकर इज्जत, धर्म-ईमान,
सिर्फ दौलत का भूखा हुआ इंसान,
निकम्मे माली की बदौलत,
लावारिस बनकर रह गया उद्यान !

चोर साफ़ करते है तिजोरी,
बेखौफ बजाकर नगाड़े !
वक्त जौन सा भी हो,
दिन-दहाड़े अथवा रात-दहाड़े !
जिसे देखो हर कोई,
बस अपना ही स्वार्थ जुगाड़े !
देश का कानून भी अब तो,
आता नहीं इनके आड़े !

या खुदा ! बद-इन्तजामियों का
यह सूरज कब तक ढलेगा ?
तू ही बता, अपना देश
और कितना भगवान् भरोसे चलेगा ?

शायद !

गर फैसले हमने गैरों पे टाले न होते,

तो आज देश में इतने घोटाले न होते।

सांप-छुछंदर आस्तीन में पाले न होते,

तो आज देश में इतने घोटाले न होते॥

मक्कार खुद छुपे रहकर परदे के पीछे,

कठपुतलिया नचाये, डोरी से खींचे।

सिंहासन, कैकई-धृतराष्ट्र संभाले न होते,

तो आज देश में इतने घोटाले न होते ॥

हर कोई रमा बैठा है सिर्फ अपने में,

संत-महात्मा लगे है स्वार्थ जपने में।

गर जनता के मुह पड़े ताले न होते,

तो आज देश में इतने घोटाले न होते॥

समाज यहाँ इस कदर बँटा न होता,

देश अपना जयचंदों से पटा न होता।


गर नेता-शाहों के दिल काले न होते,

तो आज देश में इतने घोटाले न होते ॥

राजनीति के ये खेल अजब निराले है,

कोयले की दलाली में हाथ काले है।

गर गोता लगाने को गंदे नाले न होते,

तो आज देश में इतने घोटाले न होते ॥

हैरत !

जिन्दगी के सफ़र में
मुझसे
आँख मिचोली करता रहा उजाला।
जब कभी
मुझे सफलता की चावी मिली,
कोई कमवख्त बदल ले गया ताला॥

असफलता की गलियों में
जिन्दगी
बस यूँ ही दीन-हीन रही।
क्योंकि वो सड़क
जो मुझे
सफलता की मंजिल पर ले जाती,
दुर्भाग्यवश हमेशा निर्माणाधीन रही॥

विडंबना !

भई, अगर
बनाकर रखोगे
इसतरह दुश्मन की
कातिल औलाद को,
घर अपने घर-जवाई !
तो फिर कसाब तो,
थूकेगा भी, हंसेगा भी,
और नखरे भी दिखाएगा,
पसर बैठ, ले-लेकर जम्हाई !!

आम-जन हों भले असुरक्षित,
मगर उसकी हिफाजत को
लगा है सख्त पहरा !
इसतरह आवाभगत में जुटे है,
मानो देश का
राजसी मेहमान जो ठहरा !!

संशय

मन में संशय उमड़ रहा है ,
एक प्रश्न घुमड़ रहा है,
क्या सचमुच लौट आये
वनवास से पुरुषोतम राम,
करके रावण का काम तमाम ?
क्या अब यह घोर कलयुग
कही समा जाएगा ?
देश में फिर से
क्या राम-राज आयेगा ?
क्या सचमुच अब देश से
भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा ?
कल रावण दहन को
कुछ लोग बता रहे थे,
बुराई पर जीत अच्छाई की !
मगर मेरे ये कुछ सवाल,
अभी तक अनसुलझे है,
मुझे तलाश है सच्चाई की !!

अद्भुत खेल !

इधर जोर-शोर से
तैयारियां चल रही थी,
फाइनल टचिंग की,
सरकारी स्तर पर !

और उधर, खेल गाँव में
सांप जी लेटे थे,
एक अफ्रीकी
ऐथेलीट के बिस्तर पर !!

अफ्रीकी ऐथेलीट
उसे देखकर बोला,
ये तो भैया मेरे साथ
सरासर रंग-भेद है !

मुझे भी लगता है
कि अबके इस
कॉमन वेल्थ के खेल में
कोई बड़ा छेद है !!

रूम अटेंडेंट दौड़ा-दौड़ा
उसके पास जाकर बोला,
चुपकर, अबके अद्भुत
ये खेल निराले है !

पांच साल में ७००००
करोड़ रूपये खर्च कर ,
हमने सांप और
संपेरे ही तो पाले है !!

उलझन !

लगातार
बरसती ही जा रही
सावन की घटाएं हैं ,
जो बिखरा पडा,
नही मालूम
वो प्रकृति की
रौद्र लटाएं है
या सौम्य छटाएं हैं ।
मगर इतना तो
अह्सास हो ही रहा है
कि जिन्दगी बौरा गई है,
जीवन की हार्ड-डिस्क मे
कहीं नमी आ गई है।
प्रोग्रामिंग सारी की सारी
भृकुटियाँ तन रहीं हैं,
टेम्पररी फाइलें भी
बहुत बन रही है।
समझ नही आ रहा
कि रखू,
या फिर डिलीट कर दू !
फ़ोर्मैटिंग भी तो कम्वख्त इतनी आसां नही !!

ख्वाइश !

मैंने न कभी
ये चाह रखी थी
कि मैं भी
बहुत रिच होता,
बस, मेरी तो
इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी,
कि काश !
तुझमे भी एक
ऑन-ऑफ का स्विच होता,
जब जी में आता,
जलाता बुझाता !
कुछ तो अपने
मन माफिक कर पाता !!


न तलाश-ए-मुकद्दर मैं निकला, न तकदीर ही हरजाई थी,
वैभव-विलासिता की भी न मैंने, कभी कोई आश लगाई थी,
इस मंजिल-ए-सफ़र में मेरी तो बस इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी, कि काश तू वैसी होती, जैंसी मैंने चाही थी !

शिकायत

ओ माय गौड़ !
स्वार्थी जन आपको
खूब अलंकारते है,
ऊपर वाला, भगवान्,
ईश्वर, अल्हा, रब, खुदा
और न जाने किन-किन
नामों से पुकारते है!


आप होनहार हो,
दुनिया के पालनहार हो,
खूब लुटाते हो अपने भक्तों पर,
आपकी कृपा हो तो घोड़े-गधे भी,
बैठ जाते है ताजो-तख्तों पर !
मगर एक बात जो
मैं आजतक न समझ पाया,

माय बाप !
सिर्फ मेरी ही बारी,
इस कदर क्यों कंजूस
बनते है आप
मुझे बताओ ऐ ऊपर वाले !
मुझमे ही सारे गुण तुमने
पाइरेटेड क्यों डाले?
अरे, कम से कम उसका
लेबल तो निकाल देते!
कुछ नहीं तो यार,
एंटी-वायरस तो ओरिजिनल डाल देते !!

सलाह !

उनका एसएम्एस आया था,
लिखा था;
एक तो तेरी जुदाई,
ऊपर से ये बरसात भी
कमबख्त दिल दुखा रही !
क्या करू, याद में जलती
ये आँखे सुर्ख हुई जा रही !!
मैंने भी उनकी बात को
सीरिअसली लिया,
और तुरंत रिवर्ट किया;
प्रिये, जुदाई का गम चखो;
साथ ही अपना ख्याल रखो !
वैसे तो इस बीमारी का आँखों से
सिर्फ एक हफ्ते का ही नाता है,
कंजक्टिवाइटिस का वायरस
गंभीर नुकसान नहीं पहुँचाता है!
फिर भी, तुम आँखे न मलना,
धूप का चश्मा लगाके चलना,
मैं हूँ न, तुम बिलकुल मत डरना !
आई ड्रॉप सिर्फ डाक्टर से
परामर्श पर ही इस्तेमाल करना !!!!