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Thursday, June 17, 2010

ऐ जिन्दगी ! मैं संवारूं भी तुझे तो क्या सोचकर !

जख्म जो दिए, वो रखे है मैंने ज़िंदा खरोंचकर,
ऐ जिन्दगी! मैं संवारूं भी तुझे तो क्या सोचकर !

मुरादे बह गई धार में, मैं फंसा भंवर-मझधार में,
ख्वाब टूटे, साहिलों पे डूबती कश्तियों में कोचकर !

मौजे समंदर ले गया आके, उम्मीद के टापू ढाके,
किनारे पे बिखरी शिर्क आरजु, लहरें ले गई पोंछकर !

तुझसे न कोई चाव है, मन में बसा इक घाव है,
इस तरह रखूँ भी तुझको, तो कब तलक दबोचकर!

ख्वाइशे फांकती धूल हैं, गिले-शिकवे सब फिजूल हैं,
करूँ भी क्या भला,किस्मत की लकीरों को नोचकर!

'टन्न' और "चियर्स"!

एक साथ,
कई हाथ
ऊपर उठकर,
और फिर
हवा में छलकते पैमाने,
मदयम-मदयम,
'टन्न' की स्वर लहरी,
चेहरे पे
मंद-मंद बिखरती वह
सारे दुःख-दर्द,
ग़मों पर
मानो
कोई विजयी मुस्कराहट,
और मटकती आँखों का
वो नशीला अंदाज !
मुद्दत से,
सोचता हूँ
पता नहीं क्यों,
क्या खता हुई कि
कानो ने नहीं सुनी
"चियर्स" की आवाज !!

भोपाल !

वो अशुभ काली रात उनकी, राह में मौत पसर गई,
लाशों के कफ़न बेच कुछ की तो जिन्दगी बसर गई!

बच गए वे जो त्रासदी में,अपंग देह का बोझ ढ़ोकर,
न्याय पाने की उम्मीद में, सदी चौथाई गुजर गई!

क़ानून, न्याय-व्यवस्था के वो बन फिरते है रहनुमा,
इंसाफ का दम भरने वाले की, आँखों से नजर गई!

आत्मसम्मान बेच माई-बाप के दर पे बिकने वाले,
कातिल की खिदमत में उनकी,न कोर-कसर गई!

पीड़ित की बददुआओ का भी इनपर, असर नहीं होता,
दुर्बल की हाय भी न जाने क्यों, यूँ ही बेअसर गई!

Friday, June 11, 2010

कभी सोचा ?

आने वाले दौर के लोग पूछेंगे,
कि आज के दौर में ये मंज़र आये क्यों थे !
सब कुछ अगर ठीक-ठाक था,
तो हर तरफ शरीफों ने खंजर उठाये क्यों थे !
तब हम सफाई देंगे कि जी,
गलती सरकार की थी,
वो हँसेंगे और कहेंगे बेशर्मो,
तुमने ताजो-तख़्त पे कंजर बिठाए क्यों थे !!


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आत्मा,
मरने के बाद कहाँ जाती है ?
मेरी मानो तो
ताउम्र साथ निभाती है !
यूँ समझिये कि
यह शरीर एक मोबाईल फोन है,
जीवन-लीला जिसमे
एक सुरीली सी रिंग टोन है !
मस्तिष्क की-गार्ड है,
और आत्मा सिमकार्ड है!
इसमें
प्रकृति को मानो
कृत्रिम उपग्रह अगर,
तो दुनिया का पालनहार
सर्विस प्रोवाईडर !
बस आत्मा का
इस शरीर से इतना सा नाता है,
इंस्ट्रूमेंट ख़राब होने पर
सिमकार्ड को
एक और इंस्ट्रूमेंट में डाल दिया जाता है !!

विरह गीत

मीत तुम कब आओगे,
कब तक यूं तडपाओगे,
जान बाकी है,
अरमान बाकी है,
पास कब बुलाओगे,
मीत तुम कब आओगे !
झुठलाओ न मुझे,
झूठे वादों की तरह,
ये नयन झरते है
सावन-भादों की तरह,
कब तक यूं सताओगे,
मीत तुम कब आओगे !!
दिल में आस है,
मन मेरा उदास है,
क्या तुम्हे भी
यह अहसास है,
प्यास कब बुझाओगे,
मीत तुम कब आओगे !
दिल को न अब ठौर है,
बेचैनियों का दौर है,
गर तुम ना समझो ,
ये बात और है,
मर गए तो तुम हमें
बिसरा न पाओगे
मीत तुम कब आओगे !!
यहाँ सब बेगाने है,
पास भूले-बिसरे अफ़साने है
मयखाने बैठ के भी
खाली-खाली सब पैमाने है,
विरह में कब तक रुलाओगे ,
मीत तुम कब आओगे !!!

समीप तेरे मकान खोल दी मैंने


तेरे लिए मेरी जाँ खोल दी मैंने,
इक दर्द की दुकाँ खोल दी मैंने !
गम देकर बदले में खुशी ले जाना,
समीप तेरे मकाँ खोल दी मैंने !!
खरी है ज़ुबानी धोखा न बेईमानी,
सरे राह-ऐ-इमाँ खोल दी मैंने !
मुनाफ़ा जो भी हो सब तुम्हारा है,
अपने लिए नुकसाँ खोल दी मैंने !!
जुबाँ पर मेरे गर यकीं हो तुम्हे,
भरोंसे की अब खदां खोल दी मैंने !
प्यार तुम्हारे लिए रखा बेपनाह,
प्रेम-रसद बेइंतहां खोल दी मैंने !!

Wednesday, June 9, 2010

वह रीत नहीं दोहरानी है !

जीवन धार है नदिया की, उम्र बहता पानी है,
बयाँ लफ्जों में करूँ कैसे, तमन्ना बेज़ुबानी है!

पानी में उठ रहे जो बुलबुले बारिश की बूंदों से,
मौसम के कुछ पल और ठहरने की निशानी है!

रुकावटें बहुत आयेंगी हमारे सफ़र के दरमियाँ,
तू अपना हुस्न संभाले रख,मेरे पास जवानी है !

मुहब्बत का ये जूनून अगर हद से गुजर जाएगा,
समझ लेना मैं मजनू हूँ,तू मेरी लैला दिवानी है!

संग फासला तय करेंगे हम पर्वत से समंदर तक,
बिछड़ जाए दोराहे पर, वह रीत नहीं दोहरानी है !

दर्द की इक दुकाँ खोल ली मैंने !

झंझटों की पोटली मोल ली मैंने,
ब्लोगिंग जीवन में घोल ली मैंने,
गम खरीदता हूँ, खुशियाँ बेचता हूँ,
दर्द की इक दुकाँ खोल ली मैंने !

सुबह-शाम कंप्यूटर पर जमे रहकर,
वक्त कट जाता है,खुद में रमे रहकर,
फुर्सत के हिस्से का परिश्रम बेचकर,
यह चीज बड़ी ही अनमोल ली मैंने!

दिल की बात आती है जब जुबाँ पे,
सजा लेता हूँ उसे तुरंत ही दुकाँ पे,
ग्राहक को उससे कभी ठेस ना लगे,
जभी हरबात अच्छे से तोल ली मैंने!

लोग तो कहते है मुनाफे का सौदा है,
कम हानि,ज्यादा लाभ का मसौदा है,
मगर मुझे तो बात जो कहनी थी,
दुकान से ही बेधड़क बोल ली मैंने!
गम खरीदता हूँ, खुशियाँ बेचता हूँ,
दर्द की इक दुकाँ खोल ली मैंने !

हौंसला !


इसलिए प्यार है मुझे,
इसलिए मिस करता हूँ ,
उन ख़ूबसूरत ऊँचे पहाडो को,
जिनके,कहीं चिकने,
कहीं खुरदुरे सीनों पर,
मरहम की तरह लिपटी,
नरम-मुलायम बर्फ
जब पिघलकर,
बूँद-बूँद आंसुओ की तरह बहकर
कहीं ओझल होती है तब भी,
अपने ह्रदय को तड़पता छोड़
जग दिखावे को,
वह दृडता और शालीनता,
चेहरे पर ओढ़े रखता है!
वहीं लंबा, तनकर सीधा खडा,
चीड़ का पेड़,
जब ताप से बचने को लोग
शीतलता ढूंढते है ,
वह अपनी छुन्तियों से,
जेठ की तपती दोपहर में,
हौंसले झाड़ता है,
जिन्हें बचपन में हम लोग
लग्न और तत्परता से
समेटा करते थे !
छूट गई वो हिम्मत
शहर आने के बाद,
उन हौंसलों को एक बार फिर से
बटोर लाने का दिल करता है !

Saturday, June 5, 2010

सोचो-सोचो !!

सिर्फ मुद्दा उठाने व चिंता व्यक्त कर देने भर से,
क्या सोचते हो देश-तंत्र सुधर जाएगा ?
जाने-अनजाने ये विनाश का बीज जो बो रहे है,
क्या पौधा बनके हमारे समक्ष नहीं आयेगा?
सोचो-सोचो !

लिख देने या फिर किसी एक के कहने भर से,
क्या यह देश कभी सुधरने वाला है ?
देश सुधारने के लिए क्या आज हमारे बीच कोई,
भगत सिंह व चंद्रशेखर बनने वाला है ?
सोचो-सोचो !

यों भी बताने को दुनिया को हमारा इतिहास,
कभी भी प्रेरणादायक रहा क्या ?
हमारी घृणित राजनीति का चेहरा यहाँ पर,
कहीं भी मुहं दिखाने लायक रहा क्या ?
सोचो-सोचो !

इस गरीब देश की निर्जीव सी अर्थव्यवस्था में,
और होने देंगे हम कितना घोटाला ?
साठ हजार करोड़ रूपये का चूना लगा गया ,
काले चश्मे वाले का मद्रासी ग्वाला !
सोचो-सोचो !

इस लोकतंत्र की (अ)राज(क) नीति की वजह से,
आमआदमी क्या कष्ट नहीं उठाते होंगे?
जब टेड़े मुहं वाले ही आईपीएल-बीपीएल खा गए,
तो सीधे मुहं वाले कितना नहीं खाते होंगे ?
सोचो-सोचो !

किसी ने सोचा था कि १८५७ में शुरू हुआ संग्राम,
१९४७ में जाकर ख़त्म होगा ?
अगर इस नए संग्राम की अब शुरुआत हुई भी तो
यह कब जाकर ख़त्म होगा ?
सोचो-सोचो !

Friday, June 4, 2010

छिटपुट शेर !

सीने में संजोई तेरी याद, कैसे मैं भुला लूंगा,
तुम जितने मर्जी गम दो, मैं मुस्कुरा लूंगा,
गुजारिश बस इतनी है, तेरे चेहरे की रौनक न बुझे,
अपने हिस्से के आंसू मुझे दे देना, मैं बहा लूंगा !!
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खुशी सदा तेरे दर पे ठहर जाए, ये दुआ मांगता हूँ,
बस तेरी जिन्दगी संवर जाए, ये दुआ माँगता हूँ !
न कहीं जीवन सफ़र में अन्धेरा, कभी तेरी राह रोके,
तुझे हरतरफ रोशनी नजर आये, ये दुआ माँगता हूँ !!

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क्यों तूने इसतरह से पत्थर का बनाया मुझको,
मुहब्बत की सजा, ऐसी तो न दे खुदाया मुझको !
मैं सोने के वास्ते चिता पर करवटें बदलता रहा,
क्यों मौत ने न अपने सीने से लगाया मुझको !!

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डिटर्जेंट से भी जो न निकल पाए कभी
हमने रगड़-रगड़ के वो दाग निकाले है ,
आस्तीन में दोस्तों की छुपे बैठे हो जो,
बीन बजा-बजा के वो नाग निकाले हैं,
दिल में तुम्हे पढने की तमन्ना जगी तो
अंतरजाल पे ढूढ़-ढूढ़ के ब्लॉग निकाले है !

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तन्हा दिल को अपनों की बेरुखी मारती है,
मेरी आत्मा मुझको हरपल धिक्कारती है !
रंग बिखरे है पास कई सतरंगी-इन्द्रधनुषी,
किन्तु नजर एकटक शून्य को निहारती है !!

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साकी तेरे मयखाने में जाम पिया किसने,
सरे-गुलशन फूल को बदनाम किया किसने!
दिल तोड़ने से पहले ये तो पता किया होता ,
कि तुमसे ऐसा ये इंतकाम लिया किसने !!

सोसिअल स्वैप !

पश्चिम से इम्पोर्ट किया हुआ
आइडिया है यह अपने देश में,
और दिनोदिन लोकप्रिय भी हो रहा है,
सोसिअल स्वैप बोले तो
वस्तु विनिमय केंद्र,
जहां आप घर की फालतू वस्तुवे
आसानी से डंप कर सकते है !
सुनने में आया है कि
बंगलौर में ऐसे ही एक
वोमन सोसिअल स्वैप में,
बहुत सी महिलाए
अपने पतियों को साथ लाई थी !!
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और चलते-चलते:-

अपना-अपना भाग्य !

Thursday, June 3, 2010

जमाना !




क्या ज़माना आ गया कि आईने में उभरते
अपने ही अक्श का संज्ञान नंगे नहीं लेते,
सरे राह किसी को एक रूपये का सिक्का
भीख में देना चाहो,तो भिखमंगे नहीं लेते !
गली से गुजरती इक मस्त-बयार कह रही थी
कि ये दुनिया सचमुच में बहुत खराब हो गई,
इसीलिये हम आजकल किसी से पंगे नहीं लेते !!







मेरे देश के लोगो !
चोर, लुच्चे-लफंगों के तुम और न कृतार्थी बनो,
जागो देशवासियों, स्वदेश में ही न शरणार्थी बनो !

भूल गए,शायद आजादी की उस कठिन जंग को ,
खुद दासता न्योताकर, अब और न परमार्थी बनो !

पाप व भ्रष्टाचार, लोकतंत्र के मूल-मन्त्र बन गए,
आदर्श बिगाड़, भावी पीढी के न क्षमा-प्रार्थी बनो !

ये विदूषक, ये अपनी तो ठीक से हांक नहीं पाते,
इन्हें समझाओ कि गैर के रथ के न सारथी बनो!

गैस पीड़ितों के भी इन्होने कफ़न बेच खा लिए,
कुछ त्याग करना भी सीखो, और न लाभार्थी बनो !

वरना तो, पछताने के सिवा और कुछ न बचेगा ,
वक्त है अभी सुधर जाओ,अब और न स्वार्थी बनो!

मैं चिंतित हूँ !

वो अमृत तलाशा जा रहा है
जिससे कि इंसान, यानि
भ्रष्ट, कातिल, दुराचारी,व्यभिचारी
और इन सबका बाप राजनेता,
मरेगा नहीं, चिरजीवी हो जाएगा !
गर शरीर का कोई अंग
निष्क्रिय हो जाए कभी,
तो नया अंग उग आयेगा ,
अपने ही जैसा एक और
भ्रष्ट, निकृष्ट व कमीना चाहिए तो
क्लोनिंग की सुविधा भी मौजूद,
तरोताजा रहने की औषधी,
और बुढापा तो कभी नहीं आएगा !!

अभी जब इनके
घृणित, काले कारनामे देखता हूँ,
दिल को कम से कम
यह तस्सल्ली तो रहती है कि
यह दुराचारी ,
भला साथ क्या ले जाएगा ?
यों भी अब हो ही गया है वह मरने को !
मगर, अब मैं चिंतित हूँ ,
जब यह जानता है कि
इसे एक न एक दिन मरना ही है,
तब ये हाल है,
अगर यह चिरजीवी हो गया,
तो फिर क्या हाल होगा, कभी सोचा ?
इन बेहूदी खोपड़ी के
निठल्ले अमेरिकी वैज्ञानिकों को,
कोई और काम क्यों नहीं देते यारों, करने को !!

Wednesday, June 2, 2010

दो जून की रोटी !

सुबह जागा
तो अचानक याद आया,
वो पहली मुलाकात,

दो जून याद आया,
जब तुम आई थी, मेरी कुटी पे,
चंचल, झील से दो नयना,
चेहरे पे वो कातिलाना मुस्कराहट लिए,
मैंने भी संकुचाते हुए पूछा था

जब तुम्हारा नाम ,
कुछ बलखाते ,

कुछ शर्माते हुए तुमने
अपना नाम बता भी दिया था !

सुनकर, पता नहीं अनगिनत कितने
लड्डू फूटे थे मेरे मन के अन्दर ,
फिर मैंने दूसरा सवाल दागा था
कि रहती कहाँ हो ?
कितने इत्मीनान से तुमने
घर तक पहुँचने के सारे दिशा-निर्देश
एक-एक कर मुझे समझाए थे,
और घर का पता भी दिया था !!

याद है तुम्हे ,
उस वक्त मैं चूल्हे पर,
अदगुंदे गीले आटे से बनी
रोटियाँ सेकने में लगा था ,
वो ईंट मिटटी के चूल्हे पर
धूं-धूं कर जलती लकडिया,
माथे पर छलकता पसीना ,
पीतल की परात पर गुंदा आटा,
और वो चूल्हे पर रखा तौवा काला !
जब देखो,
जला-भुना बैठा रहता है ताक में,
कैसे अपनी रोटियाँ सेकूं ,
बस इसी फिराक में,
सोचता हूँ कि इंसान भी कितना
स्वार्थी और कमीना होता है साला !!

मैं उस भट्टी का
एक अकुशल श्रमिक,
तुमने देखकर तुरंत ही भाप लिया था,
और कहा था,
हटो लाओ, मैं बना देती हूँ ,
और फिर तुम्हारे हुनर को मैं
एकटक निहारता रहा था,
वो वक्त, वो खुशनुमा हसीन लम्हें,
मुझसे भूलते नहीं भुलाए !
अरसा बीता,
वो नरम, मुलायम,
तुम्हारे हाथ की बनी,
दो जून की रोटी खाए !!