राष्ट्र-सम्पदा को लूट खा रहा हर रंक, राजा बनकर,
जांच के मरहम से जख्म उभरे है और ताजा बनकर।
भेड़ की खाल में घूमते फिर रहे भेड़िये, गली-चौबारे,
कुटिलता, भद्रता पर हावी है, वक्त का तकाजा बनकर॥
गुजरा साल तो बस यूँ ही गुजर गया ;
दिवस तीन सौ पैसठ साल के, यों ऐसे निकल गए,
मुट्ठी में बंद कुछ रेत-कण, ज्यों कहीं फिसल गए।
दरमियां अवसाद धड़कन भी, दिल से बेजार लगी,
खुश लम्हों में जिन्दगी,चंचल निर्झरिणी धार लगी।
संग आनंद, उमंग, उल्लास कुछ आकुल,विकल गए,
दिवस तीन सौ पैसठ साल के, यों ऐसे निकल गए।
सुख-समृद्धि घर-घर आये,सबको ढेरों खुशियाँ मिले,
मंगलमय हो वर्ष नव, मन-उपवन आशा फूल खिलें।
लम्हा-लम्हा सबका रोशन होवे, अंधियारे ढल गए,
दिवस तीन सौ पैसठ साल के, यों ऐसे निकल गए।
Friday, January 21, 2011
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