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Friday, July 5, 2013

हर कोई यहाँ जल्दी में है !

पाकर आने की आहट
मौसम-ए- बरसात की,
एक पौधा बरगद का
रास्ते के उस छोर पर,
बाग़ के कोने में अपने
रोपने  जो  मैं चला तो ,
उधर से होकर
गुजरता हर एक राही
बस यही बुदबुदाता ;
"पागल है,
नीलगिरी का रोपता
तो कुछ फायदे में रहता।"

    

Friday, March 15, 2013

इटली वालों ......!

दगाबाजो, हमारे संग तो तुमने दगाबाजी काफी की है,
यह न पूछो, कब और कैसे, क्या-क्या नाइंसाफी की है।

हम तो यूं ही शराफत में मारे गए, तुम पर यकीं करके,   
इटली वालों, तुमने सरेआम हमसे वादाखिलाफी की है। 

खून इन्सानी  जज्बातों का बहाया, रिश्तों की आड़ में,
प्रश्न हमारे जीने-मरने का है, तुमको पडी माफी की है। 
   
भारतीयों की कीमत, सिर्फ इतनी सी आंकी है तुमने,   
हर्जाना-ऐ-जां, सोने-चांदी के सिक्कों से सर्राफी की है। 

'परचेत'ये दस्तूर पुराना है इन ख़ुदगर्ज फिरंगियों का ,  
हमारे पगड़ी-दुप्पटे उछाले, इनको चिंता साफी की है।  
साफी= रुमाल  

मायके वाले तो तुम्हारे, तुमसे भी बड़े दगाबाज निकले।


घर से ये कुटुंब वाले, क्या अरमान लेकर आज निकले,
इनके दिल की गहराइयों से, बस यही अल्फाज निकले।

छलने में यूं तो तुम्हारा कोई सानी नहीं बहुरानी, मगर
 मायके वाले तो तुम्हारे, तुमसे भी बड़े दगाबाज निकले। 

माशाल्लाह! क्या कहने है, तुम्हारे इन ससुरालियों का, 
 ससुर दिल फेंक और सैय्या झूटों के बड़े सरताज निकले।

गुलाम,टहलुआ तो क्या, धाक ऐसी जमाई प्रधान पर भी, 
मजाल क्या किसी की, खिलाफ तुम्हारे आवाज निकले। 

ये ठगों का बस्ता तुम्हारा,इस बस्ती का दुर्भाग्य समझो, 
जयचंदों की तो फ़ौज निकले, कोई न पृथ्वीराज निकले। 

रिश्तेदार होते हैं भरोसे के काबिल, टूटा ये भ्रम 'परचेत',
नेक समझा जिन्हें वो, कबूतर के चेहरे में बाज निकले।