इश्क जिस रोज हुस्न की मजबूरी समझ लेगा,
प्रेम उसी रोज अपनी तपस्या पूरी समझ लेगा।
छलकते हुए, लबों से हरगिज तबस्सुम ना बहे,
पैमाना प्यार का जब यह जरूरी समझ लेगा।
गर दिल,ख्वाइशों को मचलने की वजह ही न दे,
पलक झुकाने को ना हवस मंजूरी समझ लेगा।
सच्चे प्यार में हुस्न, मंज़िल-ए-इश्क से क्यों डरे,
प्रणय-सूत्र दरम्यान उनकी हर दूरी समझ लेगा।
अगर हुस्न जागता रह गया इंतज़ार-ए-इश्क में,
प्रीत की ये गजल 'परचेत',अधूरी समझ लेगा।
Friday, March 11, 2011
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