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Tuesday, September 23, 2014

हम बेवफ़ा तो हरगिज न थे।


तरुण-युग, वो कालखण्ड,
जज्बातों के समंदर ने   
सुहाने सपने प्रचुर दिए थे, 
मन के आजाद परिंदे ने
दस्तूरों के खुरदुरेपन में कैद 
जिंदगी को कुछ सुर दिए थे।   

और फिर शुरू हुई थी 
अपने लिए इक अदद् सा 
आशियाना ढूढ़ने की जद्दोजहद, 
जमीं पर ज्यूँ कदम बढे 
कहीं कोई तिक्त मिला,
और कभी कोई शहद।

सफर-ऐ-सहरा आखिरकार, 
मुझे अपने लिए इक 
सपनो की मंजिल भाई थी,
पूरे किये कर्ज से फर्ज 
और गृह-प्रवेश पर
               संग-संग मेरे "ईएम आई" थी।            

अब नामुराद बैंक की 
'कुछ देय नहीं ' की पावती ही, 
हाथ अपने रह गई, 
हिसाब क्या चुकता हुआ  
कि नम आँखों से गत माह 
वह मुझे अलविदा कह गई।   

दरमियाँ उसके और मेरे 
रिश्ता अनुबंधित था,
वक्त का भी यही शोर रहा है, 
शिथिल,शाम की इस ऊहापोह में 
मन को किन्तु अब 
येही ख़्याल झकझोर रहा है।  

हुआ मेरा वो  'आशियाना ',
उसके रहते जिसपर  
हम कभी काबिज न थे,  
मगर, वह यूं चली गई, 
वही बेवफा रही होगी,
हम बेवफ़ा तो हरगिज न थे।  

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