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Monday, August 24, 2009

जुल्म गुजरने लगे जब हदे लांघकर !

हक़ ना मिल पाए जब तुम्हे मांगकर,
जुल्म गुजरने लगे जब हदे लांघकर !
क्रान्ति का बिगुल फिर बजा दो दोस्तों,
फायदा फिर कुछ नही नेह-स्वांगकर !!

देश गौरव हो या अस्तित्व की लड़ाई,
मुल्को मिल्लत की उसीने शान बढाई !
वीर बनके जाग उठे जो थाम तलवार
हाथ में, और कर दे दुश्मन पे चडाई !!

फंसना न तुम शत्रु की किसी चाल में,
जो चाहा, उसे जीत लो हर हाल में !
फ़तह का स्वाद तुम तभी चख पावोगे,
रोक लो जब शत्रु के वार को ढाल में !!

कायर यहाँ, रोज-रोज मरता ही रहेगा,
जुल्म जाहिलो के सहन करता ही रहेगा !
वीर को भी मरना तो एक बार है ही,
वो फिर क्यों जुल्म अपने ऊपर सहेगा !!

गर तुम बढोगे अपने शत्रु पर फर्लांग भर,
कदम तुम्हारे खुद-व-खुद बढेगे छलाँग भर !
कहते है लोग हिम्मते मर्दा-मदद-ए-खुदा,
कूद पड़ मैदान में, कफन सर पर टांगकर !!

हक़ ना मिल पाए जब तुम्हे मांगकर,
जुल्म गुजरने लगे जब हदे लांघकर !
क्रान्ति का बिगुल फिर बजा दो दोस्तों,
फायदा फिर कुछ नही नेह-स्वांगकर !!

धन्य है लोकतंत्र !

अपने आस-पास की कुछ घटनाओं पर विचार- मग्न था, तो टीवी पर खबरे देखते-देखते मुह से कुछ इस तरह के बोल फूट पड़े :

लोकतंत्र में राजनीति का, यह कैसा गड़बड़ झाला,
जिसे एबीसीडी पता नहीं,वह नेता बन गया साला.....
जाने कितने कत्ल किये और कितना किये घोटाला,
जिसे एबीसीडी पता नहीं, वह नेता बन गया साला.....

जिसका जेब काटना पेशा था, धंधा तोड़ना ताला,
लोकतंत्र का कमाल तो देखो, नेता बन गया साला.....
जेल था जिसका ठौर-ठिकाना, वह आज बना है आला,
लोकतंत्र का कमाल तो देखो, वह ने बन गया साला.....

मालदार आज बड़ा,जो कलतक था दो पैसे का लाला,
मतदाता की कृपा तो देखो, वह नेता बन गया साला ......
कलयुग में झूठे का मुह उजला है,सच्चे का है काला,
जिसे एबीसीडी पता नहीं, वह नेता बन गया साला.....

Friday, August 21, 2009

हुश्न वाले, तनिक हुश्न का अंजाम देख !


तस्वीर पर नजर गई तो एक पुराने शेर के साथ चंद शब्द गुनगुनाये बगैर न रह सका, आपसे अनुरोध है कि आप इसे कृपया अन्यथा न ले :
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(तस्वीर टाइम्स आफ इंडिया के सौजन्य से)

डूबते सूरज को, तू वक्त-ए-शाम देख,
हुश्न वाले, तनिक हुश्न का अंजाम देख !
राहें अनजानी हैं, अनजाना है कारवां,
तू अपनी राह पर मंजिले-मुकाम देख !!

हवा में बिखरी खुशबुओ को वे जब भी,
इस तरह अपनी साँसों में पाते रहेंगे !
फूल पर मंडराते कुछ दिलजले भंवरे ,
बिखरे चमन को, गुलजार बनाते रहेंगे!!

मौसम आये यहाँ कोई भी रंग बनके,
तू जहां के ढंग देख, इल्जाम देख !
डूबते सूरज को तू, वक्त-ए-शाम देख,
हुश्न वाले, तनिक हुश्न का अंजाम देख !!


Wednesday, August 19, 2009

जिन्ना तो जैसे, मक्का हो गया !

इस कलयुग में,कम-से-कम दो का तो,
जन्नत पाना पक्का हो गया,
आज इन राम-भक्तो के लिए,
जिन्ना तो जैसे, मक्का हो गया !

पहले तो खूब जी भरकर,
बस हिंदुत्व का ही राग अलापा,
कन्याकुमारी से कश्मीर तक,
रथ चढ़ के राम का नाम जापा !

चढावे पे हाथ साफ़ कर चुके तो,
जाम रथ का चक्का हो गया,
आज इन राम-भक्तों के लिए,
जिन्ना तो जैसे, मक्का हो गया !

पहले लाल-हरे कृष्ण हो गए थे,
अबके हनुमान कर गया काम,
घर का भेदी ही लंका ढा गया,
अब तेरा क्या होगा, हे राम !

जिसे तराशा सांचे ढाल कर,
खोटा वह टक्का हो गया,
आज इन राम-भक्तों के लिए,
जिन्ना तो जैसे,मक्का हो गया !

Friday, August 14, 2009

सुन लो पुकार, हे कृष्ण !




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हे कान्हा!अब आ भी जाओ, बचा न सब्र कुछ शेष ,
जरुरत महसूस करे तुम्हारी, अरसे से यह देश !

आओ बनकर चाहे तुम ग्वाला, या बन जावो नंदलाला,
देबकीनंदन सुत बनके,लियो चाहे रिझाइ तुम बृजबाला !
बस तुम अब आ भी जावो, धरकर अवतारी भेष,
जरुरत महसूस करे तुम्हारी, अरसे से यह देश !!

कर्म,उपासना अब कष्ट हो गए,ईमान-निष्ठां नष्ट हो गए,
झूठ-फरेब में उलझे सब है, धर्म गुरु भी भ्रष्ट हो गए !
व्यभिचार के दल-दल में डूबे,दरवारी और नरेश,
जरुरत महसूस करे तुम्हारी, अरसे से यह देश !!

संकट में है आज वो धरती, जिसपर तुमने जन्म लिया,
मत भूलो, इसकी रक्षा का, तुमने था इक बचन दिया !
पूरा करो उसे हे कृष्ण! दिया गीता में जो उपदेश,
जरुरत महसूस करे तुम्हारी, अरसे से यह देश !!

हे कान्हा! अब आ भी जाओ, बचा न सब्र कुछ शेष ,
जरुरत महसूस करे तुम्हारी, अरसे से यह देश !


- सभी पाठकों को मेरी तरफ से जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये !

Monday, August 10, 2009

एक हसीं ख्वाब !

अश्रु पीकर मुस्कुराना चाहती है जिन्दगी,
फिजा को छोड़ बहार पाना चाहती है जिन्दगी,
कांटे युं तमाम देह से अबतक निकाल न पाये मगर,
इक फूल का बोझ फिर भी उठाना चाहती है जिन्दगी !

अब तक तो इस दिल की हमने एक न मानी,
ख्वाबों के बीहडों मे ही शकून-ए-खाक छानी,
हरयाली से आछादित किन्ही खुशनुमा वादियों मे,
मधुर प्यार भरा गीत गुनगुनाना चाहती है जिन्दगी !

छोडकर बेदर्द जहां के सारे दर्द-ओ-गम,
इक साज-ए-नुपुर पर ही मुग्ध हो जाये हम,
विरह की पीडा हमे भी मह्सूस होने लगे ऐसे,
उस इन्तजार मे पलके बिछाना चाहती है जिन्दगी !

जहा दर्मियां हमारे कोई और न हो,
जमाने की बन्दिशो का कोई जोर न हो,
गुजार सके पह्लु मे जिसकी कुछ पल चैन से,
चूडी-कंगन से भरा वह सिरहाना चाहती है जिन्दगी !

नोट: किसी रचनाकार(नाम नही मालूम) की एक बहुत पुरानी खुबसूरत गजल “ मेरी तमन्ना” की तर्ज पर मैने यह भाव युवा पीढी के मनोरंजनार्थ लिखे है, इन्हे कृपया अन्यथा न ले !

’अलीबाबा और पांच सौ बयालीस चोर’

न सावन की रिमझिम, न पवन करे शोर
कण-कण मे फैला है, भ्रष्ठाचार चहुं ओर
नित महंगाई, बढती जा रही है घनघोर
जन-जन त्रस्त यहां, छटपटाता हर छोर,
उसपर खजाना लिये बैठ मौज उड़ा रहे,
अलीबाबा और पांच सौ बयालीस चोर !

हवालात मे खूब मौज कर रहे है बन्दी
कोतवाल बिठाये रखे है ये अपने पसन्दी
कचहरी मे छाई है तठस्थ जजो की मन्दी
अन्धा-कानून नाचे इनके आगे जैसे मोर,
उसपर खजाना लिये बैठ मौज उड़ा रहे,
अलीबाबा और पांच सौ बयालीस चोर !

नचा रही है इन सबको, वहां एक हसीना
नाच रहा आज यहां खूब हर एक कमीना
घर-घर पे क्रोस लगाने को बेताव मर्जीना
उडेलना छोड, तेल लगाती इनपर पुरजोर
उसपर खजाना लिये बैठ मौज उड़ा रहे,
अलीबाबा और पांच सौ बयालीस चोर !

मर्जीना का नया फन्डा असरदार निकला
अलीबाबा ही चोरों का सरदार निकला
दल-दल मे डूबा हरइक किरदार निकला
रख दिया जन-मानस को करके झकझोर,
उसपर खजाना लिये बैठ मौज उड़ा रहे,
अलीबाबा और पांच सौ बयालीस चोर !

Tuesday, August 4, 2009

रक्षाबंधन पर !


प्रिय कलयुगी भाइयों (बहनों के) ,
आज रक्षाबंधन है , भाई-बहन के प्यार और पवित्र बंधन का त्यौहार ! जैसा कि आप जानते ही होंगे कि पुराने जमाने में जब लोग वीर होते थे, सतयुगी थे, उस जमाने में वे इस त्यौहार पर बहन को हर हाल में उसकी रक्षा का वचन देते थे ! कहते है कि गहने स्त्री की शोभा होते है, और इसी लिए रक्षा बंधन के दिन भाई लोग अपनी सामर्थ्य के हिसाब से बहनों को उपहार स्वरुप गहने देते थे ! आज आप भी दफ्तर में, बाजार में, सडको पर, घर पर माँ-बहनों को देखते होंगे, खाली गर्दन, कानो पर नकली टोप्स, हाथो में नकली कड़े ! वो इसलिए नहीं कि सोना महंगा हो गया और वे खरीद नहीं सकते, वो सिर्फ इसलिए कि आपका दूसरा कलयुगी भाई झपटमार है (इसीलिए इस कलयुग में भाई के म्याने भी बदल गए, अंडरवल्ड की दुनिया में सबसे शातिर किस्म के बदमाश को भाई कहते है ) चेन के लिए बहन की गर्दन भी काट सकता है! आज शहरों में हमारी ज्यादातर बहने, अपने पैरो पर खड़े होने की कोशिश कर रही है,मगर बुनियादी सुबिधावो के नाम पर हमने उन्हें क्या दिया? अरे ! हम तो जहां-तहां अपनी बेशर्मी की मिशाल प्रस्तुत कर देते है, क्या कभी आपने यह जानने की कोशिश की कि हमारी बहनों के लिए शहर में,बस स्टोप्स के आसपास कितने शौचालय बने हुए है? क्या उन्हें इसकी जरुरत महसूस नहीं होती?


अधफटे लिफाफे के अन्दर,
कागज़ के चंद टुकडो में,
चन्दन-अक्षत की
पुडिया संग लिपटा पडा था....
शहर की मुख्य सड़क किनारे,
कूडेदान के बाहर,
उसे देखते ही लगता था,
मानो किसी ने उसे
बड़े प्यार से सहेजा था !
हवा के झोंको संग
फडफडाता....
मंजिल पे पहुँचने को बेताब,
वह धागा,
शायद कहीं दूर से,
अपने भाई के लिए
किसी बहन ने भेजा था !!

धागे के मध्य में जड़ा
चमकता वह सितारा ,
लिफाफे के उस खुले भाग से,
बाहर झाँकने की कोशिश करता
हर आने-जाने वाले को,
यूँ देखता मानो,
वह शहर,
अभी-अभी जागा है !
उसे नहीं मालूम
कि दुनिया,
कहाँ की कहाँ चली गई,
प्रगति के पथ पर,
जिसमे बहन की आबरू
सड़को पर विखर जाती है ,
वह तो फिर भी
सिर्फ इक धागा है !!

Saturday, August 1, 2009

आँखों की नुमाइश !

काली रात और सावन की,
घनघोर घटा छाई थी...
अरसे बाद आँखों ने,
इक सपनो भरी नींद पाई थी !
मीठी नींद- मीठा स्वप्न,
खण्डित नींद-बुरा स्वप्न...
मीठा और बुरा...
दोनों ही प्रकार मौजूद थे,
कैसे श्रेणी-वद्ध करूँ ?
समझ नहीं पा रहा,
कि सपना जो मैंने देखा,
उसे कौन से में धरूँ ?


कहीं घूम आने की चाह,
मेरे दिल में जगी थी ...
और सुप्त चेतना मुझे
स्वप्न-लोक की,
सैर कराने लगी थी !
मैं जा पहुंचा हरियाली से आच्छांदित,
उस ख़ूबसूरत सी जगह पर...
और पहुंचा आखिर उस मॉल में,
आँखों की नुमाइश लगी थी
जहां, एक बड़े से हाल में !


समूचे जगत की आँखे,
मौजूद थी वहाँ...
और बांधा था,
उन भिन्न प्रकार की आँखों ने,
इक ख़ूबसूरत सा समा !
नीली-भूरी, काली-काली
बड़ी-बड़ी आँखे,छोटी-छोटी आँखे....
झील सी गहरी मोटी-मोटी आँखे !


मैं बस डूबता ही जा रहा था,
गहराइयों में,
उन प्यारी-प्यारी आँखों की...
कि तभी ठिठककर,
रुक गया, देखकर कोने में...
एक कुटारी आँखों की !
भिन्न तरह की कुछ आँखे....
सफ़ेद घूँघट के बीच...
बिलखती और रोती,
धोती के आँचल को भिगोती !
उस गीले आँचल को देख,
मैं सोच रहा था, कि...
शायद इन आँखों का,
दिल बहुत रोया है,
देश-हित के नाम पर,
अभी-अभी शायद इन्होने,
कोई अपना सगा खोया है !

कुछ और आँखे जो,
बदरंग पैंट-कमीज में लिपटी,
अलसाई और सोती हुई...
बयाँ कर रही ,
कार्यपालिका की खूबी थी,
और कुछ,
सफ़ेद खादी एवं कोट-टाई के बीच,
पडी मदमस्त,
मद्य-भाव में डूबी थी !
नीचे लिखा था;
'मेड इन इंडिया' यह सब देख...
सूख रही थी जान,
उसके भी नीचे
किसी मसखरे से सैलानी ने...
एक और चिप्पी चेप दी थी,
लिखा था, 'मेरा भारत महान' !