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Thursday, January 20, 2011

ख्वाइश !

मैंने न कभी
ये चाह रखी थी
कि मैं भी
बहुत रिच होता,
बस, मेरी तो
इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी,
कि काश !
तुझमे भी एक
ऑन-ऑफ का स्विच होता,
जब जी में आता,
जलाता बुझाता !
कुछ तो अपने
मन माफिक कर पाता !!


न तलाश-ए-मुकद्दर मैं निकला, न तकदीर ही हरजाई थी,
वैभव-विलासिता की भी न मैंने, कभी कोई आश लगाई थी,
इस मंजिल-ए-सफ़र में मेरी तो बस इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी, कि काश तू वैसी होती, जैंसी मैंने चाही थी !

1 comment:

कविता रावत said...

न तलाश-ए-मुकद्दर मैं निकला, न तकदीर ही हरजाई थी,
वैभव-विलासिता की भी न मैंने, कभी कोई आश लगाई थी,
इस मंजिल-ए-सफ़र में मेरी तो बस इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी, कि काश तू वैसी होती, जैंसी मैंने चाही थी !
बहुत खूब! ...कभी किसी कि मुकम्बल जहाँ नहीं मिलता .. गीत की पंक्तियाँ याद आ गयी ......