उदर भरता नहीं इनका, मौद्रिक रसपान से,
हैवान बन गए हैं नेता, नौकरशाह, इंसान से !
शरीक होकर भी अपने, अंतिम संस्कार में,
लौट आते है ये कमवख्त, फिर शमशान से !!
दिमाग के खाली है, चाल-चरित्र से ढीले है,
खेलते है हर खेल अपना, कुटिल जुबान से !
अपहृत कर लिया प्रजातंत्र, इन बटमारों ने,
बेवश सा देख रहा रखवाला,खडी मचान से !!
सत्र चलता है बेशर्मों का, अब रोज तिहाड़ से,
भूखा गरीब पोषता इन्हें, कर और लगान से !
वो जाए कहाँ, जिसको प्यार है देश से 'परचेत',
खुदा लगता है नजर से भी गया,और कान से !!