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Sunday, February 7, 2010

गुमशुदा की तलाश !


नाम शर्म है,
हिन्दु धर्म है,
काया नाजुक,
लाज से जन्म-मरण का नाता है ।
अरसा हुआ
गुम हुए, यह
सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है ॥

देखकर देश की दुर्दशा,
थी बहुत विचलित,
नित आसमान छूंती मंहगाई से ।
निकली थी घर से
गुहार लगाने,
सत्ता पे काबिज, देश की रहनुमाई से ॥

कुछ सफ़ेद वसनधारी,
धर्मनिर्पेक्ष अपहर्ता,
दिखावे को, बनते जो थे नेक से ।
उठा ले गये उसे,
दिन-दोपहर,
सरेआम, नई दिल्ली-१ से ॥

अब पता नही,
जिंदा है भी, या नही,
बगैर उसके यंहा जिन्दगी जहन्नुम हुई है ।
बेशर्मी और अराजकता,
खूब चांदी काट रही,
जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है ॥

8 comments:

महफूज़ अली said...

जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है ॥...........

जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है ॥.......

सही शब्दों के साथ.... सटीक भावाभिव्यक्ति के साथ ........ सुंदर कविता.... आज का परिदृश्य ...सही चित्रित किया है आपने.......

संगीता पुरी said...

बेशर्मी और अराजकता,
खूब चांदी काट रही,
जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है ॥

शर्म को ढूंढकर लाया जाना चाहिए !!

दिगम्बर नासवा said...

शर्म शर्म शर्म ........... कही से ढूँढ कर लानी पड़ेगी शर्म .......... बेच खाया है इसको देश की जनता ने, नेता ने, पैसे की भूख ने ......... शर्मसार हैं इस बेबसी पर .....

वन्दना said...

godiyal ji

kya kahun?
sharm se pani pani hun
desh ke is haal par
khud hi gum ho gayi hun

shayad sharm ko bhi sharm aa gayi hai
magar hukmrano ko kahan aati hai..............behtreen.

Harsh said...

godiyal sahab kavita man ko bhaa gayi.....

निर्मला कपिला said...

बेशर्मी और अराजकता,
खूब चांदी काट रही,
जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है
बिलकुल सही कहा जरूर बेश्र्मों ने चुराया है उसे देश का दुर्भाग्य है अब तो्राम ही राखे

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत शानदार रचना. शुभकामनाएं.

रामराम.

हास्यफुहार said...

बहुत अच्छी कविता।