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Wednesday, February 24, 2010

भूली-बिसरी !


(छवि गुगुल से साभार)

याद तो होगी तुम्हे
वो होली,
जिस पर तुमने,
अपनी मुठ्ठी में
भींचे रखे गुलाल को हौले से,
मेरे चेहरे पर मला था,
और मैं,
पानी-पानी हो चला था,
मेरा तो रंग ही उड़ गया था !
और तुम्हारे चेहरे पे
एक अनोखा सा,
मस्ती भरा रंग चढ़ गया था !!
दुनिया को तो बस,
बाते बनाने का चाहिए बहाना,
एक तरफ तुम और मैं,
एक तरफ वह मगरूर ज़माना ,
या तो तुम ख़ूबसूरत न होती
या मैं ही जवां न होता,
अभी तो बस,
लिखना ही शुरू किया था और
अधूरी पटकथा को झठ से,
रिवाजों की अंधड़ धो गई,
दिल ने चाहा बहुत,
पर मिला कुछ नहीं,
मंजिले न जाने कहाँ खो गई,
ख्वाइशे बिखरकर बंदिशों की,
आगोश में जाकर सो गई !
जिस्म जला था जब तो
साथ उसके,
दिल भी जल चुका होगा,
राख के ढेर को टटोलने से
अब क्या फायदा,ऐ दोस्त!
अब बहुत देर हो गई !!

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