नाम शर्म है,
हिन्दु धर्म है,
काया नाजुक,
लाज से जन्म-मरण का नाता है ।
अरसा हुआ
गुम हुए, यह
सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है ॥
देखकर देश की दुर्दशा,
थी बहुत विचलित,
नित आसमान छूंती मंहगाई से ।
निकली थी घर से
गुहार लगाने,
सत्ता पे काबिज, देश की रहनुमाई से ॥
कुछ सफ़ेद वसनधारी,
धर्मनिर्पेक्ष अपहर्ता,
दिखावे को, बनते जो थे नेक से ।
उठा ले गये उसे,
दिन-दोपहर,
सरेआम, नई दिल्ली-१ से ॥
अब पता नही,
जिंदा है भी, या नही,
बगैर उसके यंहा जिन्दगी जहन्नुम हुई है ।
बेशर्मी और अराजकता,
खूब चांदी काट रही,
जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है ॥
8 comments:
जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है ॥...........
जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है ॥.......
सही शब्दों के साथ.... सटीक भावाभिव्यक्ति के साथ ........ सुंदर कविता.... आज का परिदृश्य ...सही चित्रित किया है आपने.......
बेशर्मी और अराजकता,
खूब चांदी काट रही,
जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है ॥
शर्म को ढूंढकर लाया जाना चाहिए !!
शर्म शर्म शर्म ........... कही से ढूँढ कर लानी पड़ेगी शर्म .......... बेच खाया है इसको देश की जनता ने, नेता ने, पैसे की भूख ने ......... शर्मसार हैं इस बेबसी पर .....
godiyal ji
kya kahun?
sharm se pani pani hun
desh ke is haal par
khud hi gum ho gayi hun
shayad sharm ko bhi sharm aa gayi hai
magar hukmrano ko kahan aati hai..............behtreen.
godiyal sahab kavita man ko bhaa gayi.....
बेशर्मी और अराजकता,
खूब चांदी काट रही,
जब से अपने देश से शर्म गुम हुई है
बिलकुल सही कहा जरूर बेश्र्मों ने चुराया है उसे देश का दुर्भाग्य है अब तो्राम ही राखे
बहुत शानदार रचना. शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत अच्छी कविता।
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