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Saturday, March 3, 2012

सुखांतकी !


इस रंगशाला के हम मज़ूर
कोई कुशल, कोई अकुशल, 
कोई तन-मन से,
कोई अनमन उकताया  सा,  
निभा तो रहे किन्तु सब 
अपना-अपना किरदार !
पर्दा उठते ही अभिनय शुरू  
और गिरने पर  ख़त्म !!
मगर कभी-कभी कम्वक्त
मुंह बायें खडा यक्ष-प्रश्न   
मन  उद्द्वेलित कर जाता है; 
कि क्या उचित है तब, जब 
रंगकर्मी ही  तंग आ जाए  
किरदार निभाते-निभाते;
समर्पण अथवा परित्याग ? 

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