दर्द इस दिल को जमीं दे रही है,
संताप सारा आसमान दे रहा है!
पलकों में सुलगते नफरतों के शोले
यादों में तपता जहान दे रहा है !!
वो चले गए हमसे दामन छुड़ाकर,
हमारे दिल के फेल होने के डर से !
इक सब्र है जो हमसफ़र बनकर
संग हरइक घड़ी इम्तहान दे रहा है !!
जो सच था वही तो हम कह गए,
मुख पर कहने की आदत बुरी है!
अब मान-हानि के दावे की धमकी
हमको हर इक बेईमान दे रहा है!!
अनजाने से क्यों बने फिर रहे वो,
हवाओं के रुख पर जान लेने वाले!
है कोई इसका सज्ञान लेने वाला कि
क्यों एक निर्दोष जान दे रहा है !!
दुष्टता-क्लिष्टता, धृष्टता-निकृष्टता से,
अब पापों के सारे घड़े भर गए है!
जिसके लिए मौत मुह खोले खडी है ,
वही जीने का हमको ज्ञान दे रहा है !!
संताप सारा आसमान दे रहा है!
पलकों में सुलगते नफरतों के शोले
यादों में तपता जहान दे रहा है !!
वो चले गए हमसे दामन छुड़ाकर,
हमारे दिल के फेल होने के डर से !
इक सब्र है जो हमसफ़र बनकर
संग हरइक घड़ी इम्तहान दे रहा है !!
जो सच था वही तो हम कह गए,
मुख पर कहने की आदत बुरी है!
अब मान-हानि के दावे की धमकी
हमको हर इक बेईमान दे रहा है!!
अनजाने से क्यों बने फिर रहे वो,
हवाओं के रुख पर जान लेने वाले!
है कोई इसका सज्ञान लेने वाला कि
क्यों एक निर्दोष जान दे रहा है !!
दुष्टता-क्लिष्टता, धृष्टता-निकृष्टता से,
अब पापों के सारे घड़े भर गए है!
जिसके लिए मौत मुह खोले खडी है ,
वही जीने का हमको ज्ञान दे रहा है !!
21 comments:
vaah!
अदभुत से बड़ा शब्द हमारे ध्यान में नहीं इसलिए लिख रहे हैं
अदभुत
फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
... बेहद प्रभावशाली ।
जो सच था वही तो हम कह गए,
मुख पर कहने की आदत बुरी है!
अब मान-हानि के दावे की धमकी
हमको हर इक बेईमान दे रहा है!!
एकदम सही कहा गोदियाल जी आपने ,ये चोर उचक्के ही हमें धमकी देतें हैं और हम असहाय सा देखते रहते हैं /
इक सब्र है जो हमसफ़र बनकर
संग हरइक घड़ी इम्तहान दे रहा है !!
कहते है कि सब्र का फल मीठा होता है. सब्र ही तो हमसफर बनकर चलने के काबिल है
सुन्दर रचना
दरअसल अब कोतवाल इनके सैंया हो गये हैं>..
Sunil Dutt sahab se sahmat.
बहुत अच्छी रचना जी, धन्यवाद
दुष्टता-क्लिष्टता, धृष्टता-निकृष्टता से,
अब पापों के सारे घड़े भर गए है!
जिसके लिए मौत मुह खोले खडी है ,
वही जीने का हमको ज्ञान दे रहा है !!
बिव्कुल सही!
अद्भुत रचना!
waah sir bahut khoob...sundar rachna har baar ki tarah...
जो सच था वही तो हम कह गए,
मुख पर कहने की आदत बुरी है!
अब मान-हानि के दावे की धमकी
हमको हर इक बेईमान दे रहा है!!
क्योंकि सच कोई पसंद नही करता ना इस बेईमानों की दुनिया में..बहुत बढ़िया भाव..सुंदर रचना के लिए बधाई
दुष्टता-क्लिष्टता, धृष्टता-निकृष्टता से,
अब पापों के सारे घड़े भर गए है!
बहुत बढिया गोदयाल जी,
भगवान परशुराम जयंती की शुभकामनाएं
wahwa....
कुछ नहीं कह सकता इस शानदार प्रस्तुति के बारे ..शब्द नहीं मिल रहे , मेरा शब्दकोष छोटा लग रहा है ,,,,,,अपनी भाषा में कहूं तो 'एक दम रापचिक माल' है ये ...आपको सादर प्रणाम ......फिर से बार - बार पढ़ने को तैयार हूँ इस रचना को ..पढ़ रहा हूँ ...सम्पूर्ण रचना लाजवाब हर पंक्ति खुद में पूर्ण और प्रभावशाली है
बहुत सुन्दर रचना है ... खास कर ये पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगी -
इक सब्र है जो हमसफ़र बनकर
संग हरइक घड़ी इम्तहान दे रहा है !!
अनजाने से क्यों बने फिर रहे वो,
हवाओं के रुख पर जान लेने वाले!
है कोई इसका सज्ञान लेने वाला कि
क्यों एक निर्दोष जान दे रहा है !!
हमेशा निर्दोष कि जान ही जाती आ रही है ... और समाज हमेशा अनजान बना फिरता है ...
आपने जन्मदिन कि बधाइयाँ दी .. उसके लिए शुक्रिया !
bahut accha hai ,badhai aapko
अच्छी रचना के लिए बधाई।
वाह! अद्भुत!
फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
जो सच था वही तो हम कह गए,
मुख पर कहने की आदत बुरी है!
अब मान-हानि के दावे की धमकी
हमको हर इक बेईमान दे रहा है!..
वाह ... गौदियाल जी .. की बात कही है ... ये ही तो दस्तूर है ज़माने का ...
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