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Monday, March 29, 2010

आस्था से अरे, यह तेरा प्यार कैसा !

कृत्यों मे संदिग्धता हो, फिर करे कोई ऐतबार कैसा ।
शालीनता न दिखे स्वभाव मे,यह तेरा व्यव्हार कैसा ।।

पाले रखे है नित जिगर मे, अंत्य ख्याल प्रतिघात के ।
फ़रमाबरदार अल्लाह का बन, आस्था से प्यार कैसा ॥

निकले नही जुबां से कभी, सरस स्नेह के दो लफ़्ज भी ।
रिपु बनाके अग्रज को, जेहाद मुक्ति का आधार कैसा ॥

भोग के लोभ मे लबे-राह, बना लिया इक आशियाना ।
वसीला बना अशक्त-ए-पर्दानशीं, सर्ग का करार कैसा ॥

खुदा के फ़जल से बना जब, कृति अनवरत संसार की ।
पाने को अज्ञेय जन्नत हो रहा, इस कदर बेकरार कैसा ॥

एक ही माटी से ढले जब उसने सभी एक ही चाक पर ।
कहे, तोड डाल काफ़िर घडों को,अरे यह कुम्हार कैसा ॥

गैर-मजहब की भी स्तुति करना सीख ले, निन्दा नही ।
इन्सानियत ईश धर्म है, फिर यह तेरा अहंकार कैसा ॥

- अंत्य = तुच्छ -फ़रमाबरदार=आज्ञाकारी
- लबे-राह= सड्क किनारे -वसीला= जरिया,
- अग्रज= बडा भाई - सर्ग= सृष्टि, रिपु= शत्रु

15 comments:

संजय भास्कर said...

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

सीमा सचदेव said...

bahut khoobsoorat khyaal

Shekhar Kumawat said...

bahut achi kavita he bhai saheb
ढेर सारी शुभकामनायें.

http://kavyawani.blogspot.com

shekhar kumawat

शहरोज़ said...

गैर-मजहब की भी स्तुति करना सीख ले, निन्दा नही ।
इन्सानियत ईश धर्म है, फिर यह तेरा अहंकार कैसा ॥
shaandaar!!!
sabhi blogeron k liye prerak !!!!

kaash ham sabhi apne aham se mukt hona seekh len!!!!

महेन्द्र मिश्र said...

रचना प्रस्तुति पर बधाई...

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बहुत उम्दा... शानदार.. धन्य भाव लिये हुये.. उन्हें भी समझ आये तो सोने पे सुहागा.

kunwarji's said...

व जो कर रहे है वो करना छोड़ दे तो फिर कोंन पूछेगा उन झूठे नाम के लोभियों को! नहीं है ये प्यार!

कुंवर जी,

मनोज कुमार said...

खुदा के फ़जल से बना जब, कृति अनवरत संसार की ।
पाने को अज्ञेय जन्नत हो रहा, इस कदर बेकरार कैसा ॥आपकी मान्यता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

अजय कुमार said...

सही सीख ,
क्या बात है

आशीष/ ASHISH said...

Ek hi maati se dhale jab usne sabhi ek hi chaak par!
Kahe, tod dal kaafir ghadon ko, are yeh kumhaar kaisa!!
Godiyaal Saab, insaniyat ka pukhta sandesh deti hai aapki rachna!
Aabhar!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

गैर-मजहब की भी स्तुति करना सीख ले,
निन्दा नही ।
इन्सानियत ईश धर्म है,
फिर यह तेरा अहंकार कैसा ॥

बढ़िया सन्देश देती हुई है आपकी रचना!

राज भाटिय़ा said...

एक ही माटी से ढले जब उसने सभी एक ही चाक पर ।
कहे, तोड डाल काफ़िर घडों को,अरे यह कुम्हार कैसा ॥

बहुत सुंदर जी .
धन्यवाद

पी.सी.गोदियाल said...

इस हौसला अफजाई के लिए सभी मित्रों को मेरा तहेदिल से धन्यवाद !

SANJEEV RANA said...

निकले नही जुबां से कभी, सरस स्नेह के दो लफ़्ज भी ।
रिपु बनाके अग्रज को, जेहाद मुक्ति का आधार कैसा ॥

thik kaha jab 2 pyaar ke bol bhi nhi bol sakte to unse sakaratmak kranti kaise ki kya umeed ki ja sakti hain.

ajit gupta said...

काफिर घड़ों को तो टूटकर बिखरना ही है। आस्‍थाविहीन आदमी हम बर्दास्‍त नहीं कर सकते। वो भी केवल हम में आस्‍था होना ही अनिवार्य है। बढिया लिखा है।