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Tuesday, March 2, 2010

हो ली !

आज प्रस्तुत है होली के पर्व की आखों देखी। मैं जब इस तरह की कवितायें लिखते वक्त अपने सबसे अच्छी श्रोता कह लो या फिर मजबूर श्रोता को सुनाता हूं, तो जबाब देने मे माहिर पत्नी जी का वाह-वाही के तौर पर दिया गया सुक्ष्म सा जबाब यह होता है कि “ख्वाब देखने मे अपने बाप का क्या जाता है ?” :)




खेल गई वो आके मेरे संग होरी,
मुहल्ले मे आई जो इक नई गोरी।
हंसमुख चेहरे पे चंचल दो नैना,
बडी नटखट लागे कमसिन छोरी॥

जल्दी से जाने कब निकट आई,
चुपके-चुपके और चोरी-चोरी।
रंग भरी पिचकारी हाथ धरी,
खुद भीगी, मुझे भी भिगोरी॥

गालों पे जब मलती गुलाल वो,
संग मेरे करके खूब जोरा-जोरी ।
मुझे लगता कुछ ऐसा था मानो,
साबुन लगाके, मुख मेरा धो री ॥

जब से गई वो मेरे संग खेलकर,
ऐसी मद-मस्त रंगीली होरी।
तब से बार-बार उसे याद कर,
तबियत भी रंगीली सी हो री ॥

’होली है’ के उसके सुरीले बोल,
यूं पडे कानों मे ज्यूं गाये लोरी।
खींच ले गई वो पल मे दिल को,
ज्यों ले जाती है पतंग को डोरी।।

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