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Tuesday, March 16, 2010

झूठों के गले मे पडी माला, लोकतन्त्र का मुंह…

सर्व-प्रथम आप सभी को हिन्दु नव-वर्ष वि.स. २०६७ की हार्दिक शुभकामनाये! व्यथित मन इस देश मे लोकतन्त्र और संविधान की दुहाई देने वालों की घटिया हरकतों को देख क्रोधित हो उठता है। आज जहां एक तरफ़ करोडों की आवादी भुखमरी के कगार पर खडी है, कानून और व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि एक बेखौफ़ दुष्कर्मी जो एक युवति से दुष्कर्म की सजा काट रहा है, जेल से छूटकर आता है तो फिर उसी युवति को सरे-आम उठा कर ले जाता है। और उसके साथ मुह काला करने के बाद उसे नोऎडा की सड्कों पर फेंक देता है। क्या इसी स्वतन्त्र और सर्वप्रभुत्वसम्पन्न भारत के सपने सजोये थे हमने ? कौन इन्हे यह सब करने का दुस्साहस देता है? दलितों और पिछडों से भी पूछना चाहुंगा कि सत्ता और अधिकारों के नाम पर दिन-दोपहर सडकों पर यह भोंडा प्रदर्शन क्या दर्शाता है । सवर्णों द्वारा दलितों के दमन की शिकायत तो आप अकसर करते है, मगर जब अधिकार आपके हाथ मे आये तो आप दुरुपयोग करने से कहां चूके?अगर आपकी नजरों में यह सब सही है तो फिर सवर्ण भी कहां गलत थे ?

माया बटोरने का अजब यह कौन सा मिराक* है,
तार-तार करके रख दी लोकतंत्र की साख है ।
संविधान मुंह चिढा रहा है निर्माता-रक्षकों का,
आढ मे दमित बैठा अब ये कौन सी फिराक है ।।

यही वो भेद-भाव रहित समाज का सपना था,
क्या यही वो वसुदेव कुटुमबकम का नारा था ।
यही वो दबे-पिछडों के उत्थान की बुनियाद थी,
क्या यही स्वतन्त्रता का बस ध्येय हमारा था ॥

नैतिक्ता, मानवीय मुल्य जिनपर हमे नाज था,
कर दिया उन्हे हमने मिलकर सुपुर्द-ए-खाक है ।
माया बटोरने का अजब यह कौन सा मिराक है,
तार-तार करके रख दी लोकतंत्र की साख है ।।

अचरज होता है मुझे कभी-कभी यह सोचकर,
क्या रोशन होगी भी गली श्यामल संसार की ।
जन यू ही सदा अरण्य युग मे ही रमाये रहेंगे,
या फिर कभी खुलेगी भी सांकल बंद द्वार की ॥

जनबल, धनबल, और बाहुबल के पुरजोर पर,
मुंहजोर ने रख छोडा आज कानून को ताक है ।
माया बटोरने का अजब यह कौन सा मिराक है,
तार-तार करके रख दी लोकतंत्र की साख है ।।

• मिराक= मानसिक रोग
• सांकल बंद द्वार की= बौद्धिक चेतना

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