आजादी की लड़ाई से अब तक, इन अपने सेकुलर नेताओं की शक्ले और करतूते देखते-देखते तो आप भी पक चुके होंगे, मगर क्या कभी आपने भी ऐसा सोचा कि अगर सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर जैसे अपने अमर शहीद १९४७ तक ज़िंदा रहते तो क्या पाकिस्तान बन जाता ? या फिर बन भी जाता तो क्या ऐसा पाकिस्तान बनता जो हमने देखा/ देख रहे है ? खैर, अगर आप नहीं सोचते हो तो सोचना इस बारे में भी, कभी वक्त मिले तो !
अब और न बिगड़ी तकदीर कोस,
और न दिल को बेकरार कर !
रात ढले न ढले मगर तू,
इक सुहानी भोर का इन्तजार कर !!
अब हासिल न होगा कुछ भी यहाँ,
सच्चाइयों से मुख मोड़ कर !
हरवक्त दर्द-ए-गम का पिटारा खोलकर,
दिल से इस कदर न तकरार कर !!
शाख-ए-गुल से टूटे फूल को,
यूँ न देख अचरज से आँखे फाड़कर !
अब उदासियों के साज तज दे,
और वसंती नगमा-ए-नौबहार कर !!
खुद की बदनसीबी के लिए,
मत इल्जाम दे हाथ की लकीर को !
बाजुओ पर रख भरोसा,
डग बढ़ा और गुलशन को गुलजार कर !!
Thursday, March 25, 2010
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18 comments:
sahi baat kahi
पक चुका हूँ सर जी........
..............
यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा...
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
@Nikhil
इतना तो मैं भी समझ ही गया कि मेरे बार-बार तुम्हारी टिप्पणियों को डिलीट करने के बावजूद भी तुम यहाँ टिपण्णी दे रहे हो तो निहायत बेशर्म किस्म के प्राणी हो , और मैं तुम्हारी असलियत भी जानता हूँ, इसलिए अंतिम बार तुमसे विनम्र आग्रह कर रहा हूँकि दोबारा मेरे ब्लॉग पर आने का कष्ट न करे !
खुद की बदनसीबी के लिए,
मत इल्जाम दे हाथ की लकीर को !
बाजुओ पर रख भरोसा,
डग बढ़ा और गुलशन को गुलजार कर !!
बहुत सुन्दर!
हर एक शेर ऊर्जा देता है!
"खुद की बदनसीबी के लिए,
मत इल्जाम दे हाथ की लकीर को !
बाजुओ पर रख भरोसा,
डग बढ़ा और गुलशन को गुलजार कर !!"
बहुत KHOOB
काश के हर नौजवान इसे पढ़ पायें!
एक लाइन हमारी भी.....
और गहरी सांस खेंच के समंदर गहरा है अभी...........,
कुंवर जी,
शाख-ए-गुल से टूटे फूल को,
यूँ न देख अचरज से आँखे फाड़कर !
सुन्दर भाव की रचना
आशावादी भी
अक्सर हो पाता नहीं मन से मन का मेल।
प्रायः अपने यूँ दिखे ज्यों पानी में तेल।।
निन्दा में संलग्न हैं लोग कई दिन रात।
दूजे का बस नाम है कहते अपनी बात।।
gazab ki prastuti..........ati sundar.
क्रन्तिकारी रचना , गोदियाल जी। बधाई।
शाख-ए-गुल से टूटे फूल को,
यूँ न देख अचरज से आँखे फाड़कर !
अब उदासियों के साज तज दे,
और वसंती नगमा-ए-नौबहार कर !!
सुन्दर अति सुन्दर
दिल को छु कर गयी।
खुद की बदनसीबी के लिए,
मत इल्जाम दे हाथ की लकीर को !
बाजुओ पर रख भरोसा,
डग बढ़ा और गुलशन को गुलजार कर !!
गोदियाल साहब,
आपकी लेखनी की धार कितनी पैनी है इसका अंदाजा शायद आपको भी नहीं..
बहुत खूब कहा है आपने...
गोंदियल सर आपकी ये चार पंक्तियाँ हिम्मत दे गयी.
आज कल कुछ मायूसी के दौर से गुजर रहा हूँ मामला जयादा गंभीर तो नहीं मगर सोंच मामले को गंभीर कर हीं देती ही..आपका धन्यवाद मुख्य रूप से इन चार पंक्तियों के लिए ...पूरी रचना कमाल की है
खुद की बदनसीबी के लिए,
मत इल्जाम दे हाथ की लकीर को !
बाजुओ पर रख भरोसा,
डग बढ़ा और गुलशन को गुलजार कर !
sahi baat kahi hai ..jabardastt tarike se.
"खुद की बदनसीबी के लिए,
मत इल्जाम दे हाथ की लकीर को !
बाजुओ पर रख भरोसा,
डग बढ़ा और गुलशन को गुलजार कर !!
बहुत सुंदर कहा आप ने जी, अगर गांधी ओर नेहरू ना होते इस के स्थान पर सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर जैसे नेता होते तो आज भारत मै कोई भूखा ना सोता, भारत को टट पूंजिये देश आंखे दिखाने की हिम्मत ना करते
खुद की बदनसीबी के लिए,
मत इल्जाम दे हाथ की लकीर को !
बाजुओ पर रख भरोसा,
डग बढ़ा और गुलशन को गुलजार कर !!
Bahut hi sahi va sarthak baat kahi aapane apane andaaz me .....bahut bahut dhanywad.
बहुत सुंदर रचना , अंतिम पंक्तियां सार्थक संदेश दे रही हैं ।
आप ऐसा नहीं लिखे कि ये होता तो कितना अच्छा होता बल्कि ये लिखें कि नेहरू जैसे लोग नहीं होते तो देश की तस्वीर ही दूसरी होती। क्योंकि उनकी काबिलियत तो हमने देखी नहीं। नेहरू की तो देख ली। जब कोई सत्ता में आता है तभी उसकी असलियत की पहचान होती है वैसे तो कुछ पता नहीं लगता। ना आपका और ना मेरा।
एक जोश जगा दिया इस लेख ने तो!
बहुत ही बढ़िया !
यूँ न देख अचरज से आँखे फाड़कर !
सुन्दर भाव की रचना
आशावादी भी
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