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Tuesday, March 23, 2010

आत्म-उचाव !

स्वप्न सुन्दरी,
मै अपने इस बदतमीज,

नादां दिल की

हरकतों पर शर्मशार हूं ।

और

मेरी जुबां पे आये

दर्द को सुनकर,

छलक आये उन आंसुओं को,

पलकों मे ही छुपा लेने पर,

तुम्हारे इन

नयनों का शुक्रगुजार हूं ॥



मै जानता हूं कि

किस तरह,

वक्त की नजाकत को समझ,

बडी चतुराई से,

इन झील सी गहरी आँखों ने

आंसुऒं को

पलको मे छुपाये रख छोडा था ।

वरना तो वे,

सब बहा ले जाते संग अपने,

पुतलियों का काजल,

तुम्हारे वेशकीमती उन

गालों के रेगिस्तान से होकर,

जिन पर

क्षणभर पहले ही तुमने,

वो महंगा कौस्मैटिक लपोडा था ॥



सोचता हूं,

काश कि

तुम्हारे नयनों की तरह,

मेरा ये नादां दिल भी

समझदार होता ।

आते चाहे कितने ही

आंधी-तूफ़ान,

जज्बातों के अंधड,

मगर यह अपना

आपा न खोता ॥




हे बापू !
माँ ने तो पूत बस दो ही पैदा किये थे,
एक नमकहराम दूजा हरामखोर निकला।
एक ने आबरू उसकी बाजार बेची,
दूसरा अपने ही घर मे चोर निकला ॥

जयचन्द, मुहम्मद गौरी संग मिलकर,
कातिल मासुमों का पुरजोर निकला।
शकुनी राजनीति की चाल चलकर,
नेता, खल-नेता, वक्ता मुह्जोर निकला॥

आवरण हरीश चन्द्र का डालकर,
अन्यायी , अविश्वासी घनघोर निकला।
माँ ने तो पूत बस दो ही पैदा किये थे,
एक नमकहराम दूजा हरामखोर निकला।।

9 comments:

जी.के. अवधिया said...

"मेरा ये नादां दिल भी
समझदार होता।"

ये दिल तो सिर्फ नादां ही रहता है, समझदार नहीं होता। समझदार नहीं होता इसीलिये भाव फूट-फूट कर कविता बनती है, समझदार हो जाने पर कठोर हो जाता है और भाव निकलने के बदले सिर्फ कलुष निकलने लगता है।

बवाल said...

बहुत लाजवाब दर्देदिल की कहानी है जी। अवधिया जी भी वाजिब फ़रमा गए।

वन्दना said...

बिल्कुल अलग ही अन्दाज़ में लिखा है ।बहुत सुन्दर्।

kunwarji's said...

"स्वप्न सुन्दरी,
मै अपने इस बदतमीज,

नादां दिल की

हरकतों पर शर्मशार हूं ।

.
.
.आते चाहे कितने ही

आंधी-तूफ़ान,

जज्बातों के अंधड,

मगर यह अपना

आपा न खोता ॥"



अनोखा अंदाज-ए-बयाँ!

दिल तो बच्चा है जी.....

कुंवर जी,

ललित शर्मा said...

सब बहा ले जाते संग अपने,

पुतलियों का काजल,

तुम्हारे वेशकीमती उन

गालों के रेगिस्तान से होकर,

जिन पर

क्षणभर पहले ही तुमने,

वो महंगा कौस्मैटिक लपोडा था ॥


वाह!गोदियाल जी-क्या अंदाजे बयां है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

काश कि

तुम्हारे नयनों की तरह,

मेरा ये नादां दिल भी

समझदार होता ।


बहुत ही शानदार ढंग से आपने इस रचना को शब्दों के मोतियों से सजाया है!

डॉ टी एस दराल said...

आज तो धाँसू।
एक अलग अंदाज़, गोदियाल जी अच्छा लगा।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जज्बातों को बयां करने का अलग ही अंदाज़ है....खूबसूरत ...दिल तो बच्चा है जी

संजय भास्कर said...

बिल्कुल अलग ही अन्दाज़ में लिखा है ।बहुत सुन्दर्।