निष्पक्षता दल-दल मे धस गई है,
निडरता कुटिलता से डर गई है,
कागज ने बागी तेवर दिखा दिये,
और कलम आत्महत्या कर गई है।
अराजकता के इस दौर मे लुटेरे,
बेखौफ़ हो अपना खेल खेल रहे,
भ्रष्ठाचार के नित बढ्ते प्रदुषण मे,
ईमानदारी घुट-घुट के मर गई है।
हया कहीं गुमशुदा बनकर रह गई,
क्योंकि समाज के चन्द ठेकेदार,
उसका अपहरण कर ले गये और,
महलों मे अब बेहयाई पसर गई है।
अब सच का आईना दिखाने वाले,
खुद बिककर आईने बन गए है,
शराफत की परतें नेता के चेहरे से,
एक-एक कर सरे-आम उतर गई है।
बडे ही लग्न और मेहनत से जो,
लिखी थी बाबा सहाब तुमने,
मोटी सी वो किताब, सुना है,
तेरे ही अपने घर की, चुहिया कुतर गई है ।
Monday, February 8, 2010
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6 comments:
"बडे ही लग्न और मेहनत से जो,
लिखी थी बाबा सहाब तुमने,
मोटी सी वो किताब, सुना है,
तेरे ही अपने घर की, चुहिया कुतर गई है।"
बहुत सुन्दर!
हया कहीं गुमशुदा बनकर रह गई,
क्योंकि समाज के चन्द ठेकेदार,
उसका अपहरण कर ले गये और,
महलों मे अब बेहयाई पसर गई है।
बहुत खूब......... बहुत पंक्तियों के साथ ....सुंदर कविता....
अब सच का आईना दिखाने वाले,
खुद बिककर आईने बन गए है,
शराफत की परतें नेता के चेहरे से,
एक-एक कर सरे-आम उतर गई है।
बहुत लाजवाब.
रामराम.
अब सच का आईना दिखाने वाले,
खुद बिककर आईने बन गए है,
वाह वाह गोदियाल साहब। बहुत खूब चित्र खींचा है आपने।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
आपने भी समाज का आईना दिखा दिया बहुत अच्छी रचना है शुभकामनायें
हया कहीं गुमशुदा बनकर रह गई,
क्योंकि समाज के चन्द ठेकेदार,
उसका अपहरण कर ले गये और,
महलों मे अब बेहयाई पसर गई है।
बहुत सटीक बाते ...
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