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Sunday, December 6, 2009

दास्तां मुसाफिर की !

इस जग सारे को तब तक, वह सुन्दर ही भाता था ,
उसे जब तक अपने पैरों पर, चलना नही आता था !
फिर एक दिन वह, खुद के पैरों पे चलता दीख गया,
बडा खुश था उस दिन, जब वह चलना सीख गया !!

इस जग मे यूं भी, बहुतेरे किस्म के इन्सान होते है,
कुछ दूसरों की खुशी देख खुश होते, तो कुछ रोते है !
और उसे भी, इस बात का अह्सास होने लगा था,
आसां नही थी डगर, इस राह पर वह खोने लगा था !!

कभी वह सोचने लगता कि फिजूल ही है बडा होना,
कितना दुखदाई है यहां, खुद के पैरो पर खडा होना !
मगर उसने चलना नही छोडा, बस वह चलता रहा,
उबड-खाबड राह मे ठोकरें खा, गिरता-संभलता रहा !!

इधर चरम पर यौवन था, उबलता जवानी का खून था,
शकूं पाने की जिद थी, कुछ कर गुजरने का जुनून था !
वह चलता गया, क्योंकि उसे मंजिल जो पानी थी,
कुछ भी हो ,रुकूंगा नही, उसने मन मे ठानी थी !!

शुकुं व मंजिल तलाशने मे ही, जाने कब उम्र ढल गई,
लकडी जो शिरे से जलनी शुरु हुई, जाने कब जल गई !
दुर्बल हाथों ने लाठी ली, थके बदन की कमर झुक गई,
भागते वक्त की सुइयां, इक दिन अचानक रुक गई !!

थका-हारा मुसाफ़िर,इसकदर खुद से परेशां हो गया,
पडाव पर पैर पसारे, आंख लगी और सो गया !
कारवां आगे बढा, उसकी सुद किसी को न लग सकी
मुसाफिर की रूह इसकदर सोई कि फिर न जग सकी !!

13 comments:

'अदा' said...

मानव जीवन के विभिन्न आयामों को द्रष्टव्य बनाती हुई आपकी कविता....
आपके ब्लॉग की शोभा है...
बहुत ही सुन्दर बन पड़ी है..
आपको बधाई...

अजय कुमार said...

जीवन की झांकी है ये

डॉ टी एस दराल said...

जीवन का सफर बहुत खूबसूरती से पेश किया है। बधाई।

दिगम्बर नासवा said...

बचपन से लेकर जवानी और फिर बुढ़ापे तक का सफ़रमाना है आपकी बेहतरीन रचना ........... बहुत खूब गोदियाल जी ...
रखने की का मर्म

महफूज़ अली said...

जीवन कि झांकियों को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने.....

वन्दना said...

zindagi ka safar hai ye kaisa safar
koi samjha nhi koi jana nhi

ye geet yaad aa gaya..........sabhi chalte hain na chahein to bhi chalna to padega hi na........bahut hi sundarta se zindagi ki poori dastan ko shabdon mein piroya hai.........behtreen

जी.के. अवधिया said...

"इस जग मे यूं भी, बहुतेरे किस्म के इन्सान होते है,
कुछ दूसरों की खुशी देख खुश होते, तो कुछ रोते है!"

बहुत सुन्दर!

अम्बरीश अम्बुज said...

bahut hi khoobsoorat tarike se pesh kiya zindgi ka safar aapne...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

शुकुं व मंजिल तलाशने मे ही,
जाने कब उम्र ढल गई,
लकडी जो शिरे से जलनी शुरु हुई,
जाने कब जल गई !
दुर्बल हाथों ने लाठी ली,
थके बदन की कमर झुक गई,
भागते वक्त की सुइयां,
इक दिन अचानक रुक गई !!

सभी छन्द बहुत सुन्दर रचे हैं आपने!
बधाई!

राज भाटिय़ा said...

थका-हारा मुसाफ़िर,इसकदर खुद से परेशां हो गया,
पडाव पर पैर पसारे, आंख लगी और सो गया !
कारवां आगे बढा, उसकी सुद किसी को न लग सकी
मुसाफिर की रूह इसकदर सोई कि फिर न जग सकी !!
यह जिन्दगी एक सफ़रमाना ही तो है, आप ने बहुत सुंदर लिखा

राज भाटिय़ा said...

थका-हारा मुसाफ़िर,इसकदर खुद से परेशां हो गया,
पडाव पर पैर पसारे, आंख लगी और सो गया !
कारवां आगे बढा, उसकी सुद किसी को न लग सकी
मुसाफिर की रूह इसकदर सोई कि फिर न जग सकी !!
यह जिन्दगी एक सफ़रमाना ही तो है, आप ने बहुत सुंदर लिखा

बेचैन आत्मा said...

ज़िन्दगी का सफर नामा खूबसूरत अंदाज में व्यक्त किया है आपने
शायद किसी शायर ने सही कहा है--

भीड़ है कयामत की जो चल सको तो चलो
बहुत कठिन है सफर जो चल सको तो चलो
यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो।

सुशील कुमार छौक्कर said...

जीवन की एक एक पड़ाव् को बहुत सुन्दर शब्दों से लिख दिया आपने


थका-हारा मुसाफ़िर,इसकदर खुद से परेशां हो गया,
पडाव पर पैर पसारे, आंख लगी और सो गया !
कारवां आगे बढा, उसकी सुद किसी को न लग सकी
मुसाफिर की रूह इसकदर सोई कि फिर न जग सकी !!

अति सुन्दर।