रात की दिल्ली की कुहास भरी ठण्ड,
एक छोटे से सफ़र पर निकला था,
निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर
कोने से सटी बेंच पर बैठ,
गाडी का इन्तजार करने लगा !
बगल पर ही कोई एक जीव
पुरानी सी एक कम्बल ओढ़ ,
अपनी दिनभर की थकान
मिटाने को व्याग्र था ,
मुझे कोई रिक्शा चालक लगा !!
तभी कुछ दूरी से,
बूटो की कदमताल
खामोशी को तोड़ते
मेरे वाले बेंच की ओर बड़ी,
पास से गुजरते,
मैं उन्हें देख रहा था,
रेलवे सुरक्षा बल के जवान थे वो !
तभी अचानक
मेरी ध्यान निद्रा टूटी
यह देख कि एक जवान ने
उस सोये जीव पर बूट की ठोकर मारी
और कड़ककर बोला,
" हे बिहारी, पैर भांच के सो" !!
बूट की ठोकर से
और सुन के गाली ,
हडबडा के उठ बैठा था,
एक नजर,
दूर जाते जवानो पर डाली,
फिर मेरा चेहरा ताक झांका इधर-उधर !
यही कोई ६०-६५ साल का
वृद्ध लगता था,
वही पुरानी कम्बल फिर से
अपने ऊपर ओढ़ते हुए बडबडाया,
"हे प्रभु ! वो दिन कब आयेगा,
जब मैं पूरे पैर पसार कर सो पाऊँगा,बेख़ौफ़,
किसी के बूट की ठोकरों से बेखबर ?? "
Thursday, December 10, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
17 comments:
kya kahun?
Bahut samvedansheel kavita hai aapki.jis desh mein pair tak failaane per pabadi ho ,vahaan samvednaaon ka dam ghutne jaisi baat hai.
कहीं दो जनों के रहने के लिए कई कई आलीशान कोठियां है तो कही पैर पसार लेने जितनी जगह भी नहीं ....क्या यही ईश्वर का न्याय है ...?
बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया आपने सच्चाई को ।
समय बदल जाता है पर सभी काम वैसे ही चलते हैं जैसे चलते थे। कभी अंग्रेज हमें बूट से ठोकर मारते थे और अब .....
एक छोटी सी चाहत, जो शायद ही कभी पूरी हो पाए।
बहुत सुन्दर लिखा है।
घुघूती बासूती
"हे प्रभु ! वो दिन कब आयेगा,
जब मैं पूरे पैर पसार कर सो पाऊँगा,बेख़ौफ़,
किसी के बूट की ठोकरों से बेखबर ?? "
सही सवाल है उसका इस देश मे एक अमीर और गरीब मे फर्क ही इतना है? दुख होता है जब इसका जवाब किसी के पास नहीं मिलता। अच्छी कविता के लिये बधाई
बेख़ौफ़ सोने की तमन्ना शायद ही पूरी हो ......बहुत अच्छी रचना !
सर्वप्रथम आप सभी का हार्दिक शुक्रिया और धन्यवाद , अपने सुधि पाठको को बताना चाहूंगा कि यहाँ पर ' बेख़ौफ़ पैर पसार कर सोने' से आशय उस वृद्ध द्वारा भगवान् से अपने लिए मौत मांगने से है !
बहुत गहरी बात छुपी है।
यहाँ कितने ही लोग ऐसे हैं, जिन्हें मरकर ही मुक्ति मिलती है।
या फ़िर , पता नही --मिलती भी है या नही।
और हाँ, गौदियल जी, ब्लॉग अब ठीक काम कर रहा है। कुछ विजेट्स हटाने से ठीक हो गया। धन्यवाद।
उस सोये जीव पर बूट की ठोकर मारी
और कड़ककर बोला,
" हे बिहारी, पैर भांच के सो" !!
सूतने तो दिया न कम से कम। नहीं त ईहो त कह सकता था रे ....या भाग ईहां से।
bahut samvedansheel rachna hai ... gareeb to apni gareebi ka daam thokren khaa kar de raha hai ...
मर्मस्पर्शी रचना !
एक छोटी सी चाहत, जो शायद ही कभी पूरी हो पाए।
बहुत सुन्दर लिखा है।
आप की ये रचना बहुत सी बातों को बेनकाब कर गयी...पढ़ कर शर्मिंदा हूँ...हम कब इंसान बनेगे ???
नीरज
jidhar dekho haiwan hi nazar aate hai. Insan hai hi kahan. bas aapno duty karni hai aur mahine par pagar chahiye. Na insane bacha hai na Insaniyat bhai.....
Post a Comment