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Thursday, December 3, 2009

यूनियन कार्बाइड !

खंडहर कर दिया उन हसीं वादियों को ,
रहा करते थे जहां इन्सान कल तक !
पिला गया उनको ही जहर का प्याला,
यहाँ तेरे रहे थे जो कदरदान कल तक !!

थम गया सब कुछ जहां इक घडी मे,
लगता न था वह शहर वीरान कल तक !
मिलती नही अब जहां धड़कन की आहट ,
वहां रुकते न थे सांसो के तूफ़ान कल तक !!

मारा बेदर्दी तूने हर उस एक शख्स को,
जो समझता था तुझको नादान कल तक !
उसी का लूटा घरबार कुहरे की धुंध में ,
बनकर रहा जिसका तू मेहमान कल तक !!

बिख्ररे पडे जहां हरतरफ हड्डियो के ढेर,
इसकदर तो न थी वह बस्ती बेजान कलतक !
संजोया था अपना जो ख्वाबो का भोपाल,
लगता नही था जालिम वो शमशान कल तक !!

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यह कविता या गजल मैने भोपाल गैस त्रास्दी पर ३० दिसम्बर, १९८४ को लिखी थी;

17 comments:

Murari Pareek said...

मारा बेदर्दी तूने हर उस एक शख्स को,
जो समझता था तुझको नादान कल तक !
उसी का लूटा घरबार कुहरे की धुंध में ,
बनकर रहा जिसका तू मेहमान कल तक !!
ग़ज़ब भाईजी इससे शानदार कुछ नहीं हो सकता !!!

संगीता पुरी said...

ब्‍लागिंग के फायदे देखिए .. इतनी पुरानी रचना हम मौके पर पढ पा रहे हैं .. बहुत सुंदर लिखा था आपने !!

ललित शर्मा said...

बिख्ररे पडे जहां हरतरफ हड्डियो के ढेर,
इसकदर तो न थी वह बस्ती बेजान कलतक !
संजोया था अपना जो ख्वाबो का भोपाल,
लगता नही था जालिम वो शमशान कल तक !!
गो्दियाल साब उजड़ा हुआ भोपाल हमने देखा था।
आपकी जानदार कविता के लिए शानदार बधाई।

विनोद कुमार पांडेय said...

भोपाल त्रासदी एक ऐसी अनहोनी जिसे हम सब कभी भी भूल नही पाएँगे..और गोदियाल जी रचना बहुत सुंदर है एक कलाम से निकले शब्द वो चीज़ है जो कभी पुराने नही होते जब मन गुनगुनता है नये हो जाते है...धन्यवाद जी

राज भाटिय़ा said...

एक बहुत अच्छी कविता, लेकिन यह जख्म तो बेगानो ने दिया, ओर उस पर नमक हमारी उस समय की सरकार ने छिडका, लोग आज भी हम होते हुये भिखारियो की तरफ़ इन हरामियो से हर्जाना मांग रहे है.. दिल जलता है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

इस त्रासदी से त्रस्त परिवारों को आज तक भी न्याय न मिलना हमारी सरकार की अकर्मण्यता को जाहिर करता है।

मनोज कुमार said...

यह रचना बहुत अच्छी लगी।

डॉ टी एस दराल said...

इस त्रासदी में आहात हुए हज़ारों लोगों के प्रति एक संवेदनशील रचना।
पढ़कर अच्छा लगा की ये कविता आपने २५ साल पहले लिखी थी।

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सुन्दर.कडवा सच भी.

बेचैन आत्मा said...

सच्ची शब्दांजली।

निर्झर'नीर said...

marmik abhivyakti

ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ said...

आपकी कविता पढ कर मन भारी हो गया। ईश्वर से यही काना है कि वह इस त्रासदी की भेंट चढे लोगों की आत्मा को शान्ति और इसके शिकार जीवित लोगों को सुकून नसीब करे।

और हाँ, आपका ईमेल आईडी क्या है, बताने का कष्ट करें, जिससे तस्लीम पहेली-53 का वर्चुअल विजेता प्रमाण पत्र आपको भेजा जा सके।
zakirlko@gmail.com

गिरीश बिल्लोरे said...

एक दर्द हम भी भोग रहें हैं
सच कितनी भयावह है दुनिया
"भोपाल वाली बुआ की " जो ज़िंदा ज़रूर हैं किन्तु

दिगम्बर नासवा said...

उसी का लूटा घरबार कुहरे की धुंध में ,
बनकर रहा जिसका तू मेहमान कल तक ....
सच कहा ये मेहमान बन कर आते हैं और छुरा घोप कर चले जाते हैं ......... यही सच है इन मल्टिनीशनल कंपनिओ का ...... मार्मिक रचना ........

वन्दना said...

ek kadve sach ko ujagar karti bahad marmik rachna.

'अदा' said...

bahut sundar likha hai Godiyal ji..

अजय कुमार said...

उस दिन एक त्रासदी हुई, लेकिन आज २५ साल बाद भी लोग सहायता के लिये तरस रहे हैं, ये सबसे बड़ी त्रासदी है