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Friday, April 23, 2010

ये दिल्ली वाले कम लेते है !

तू मेरी ऐ गल सुन कुडिये,
ये इश्क के बदले गम देते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

आँखों में दौलत का नशा है,
दिलों में इनकी जलन होती है,
बात करेंगे दुष्ट-दमन की
करनी आत्म-दलन होती है !

कदम डगमगाते घर से बाहर,
घर के अन्दर थम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

आग लगाते घर दूजे के,
अपने घर अग्नि-शमन होती है,
वर्जना नहीं रंग-ढंग अपना ,
बंदिश कुतिया के चाल-चलन होती है !

यकीं न करते अपनों पर,
गैरों पे भरोसे जम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

बाणी-भाव अशुद्ध नीरसता का,
शब्द-कुटिलता सघन होती है,
ईमान लुडकता वैंगन की तरह,
जुबां में भी फिसलन होती है !

रुतवे की धौंस के मारे बच्चे,
माँ-बाप के दम पर दम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

मुख प्रसन्नचित प्रसाधन से,
अवसाद की थैली मन होती है,
देख करे क्या भाव प्रकट उसे ,
हर पल यह उलझन होती है !

संपर्क न कोई पास-पड़ोस से,
अपने-आप में रम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

8 comments:

kunwarji's said...

"बाणी-भाव अशुद्ध नीरसता का,
शब्द-कुटिलता सघन होती है,
ईमान लुडकता वैंगन की तरह,
जुबां में भी फिसलन होती है !

रुतवे की धौंस के मारे बच्चे,
माँ-बाप के दम पर दम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !"

maar hi daaloge aaj to sir ji....

kunwar ji,

SANJEEV RANA said...

संपर्क न कोई पास-पड़ोस से,
अपने-आप में रम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है

bilkul ji yahi halaat aa gye h ab to

परमजीत सिँह बाली said...

बहुत बढिया दिल्ली का खाका खींचा है....बिल्कुल सही लगता है..बहुत बढिया रचना है।बधाई।

मुख प्रसन्नचित प्रसाधन से,
अवसाद की थैली मन होती है,
देख करे क्या भाव प्रकट उसे ,
हर पल यह उलझन होती है !

संजय भास्कर said...

... बेहद प्रभावशाली

नारदमुनि said...

---- चुटकी----

धर कर
जनसेवक
का भेस,
नेता जी
आईपीएल
की तरह
चला रहे हैं
देश।

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत गजब का लिखा है सर जी.

रामराम.

वन्दना said...

सबको क्यूँ शामिल कर लिया
हम भी दिल्ली मे रहते हैं

रचना बहुत सुन्दर है मगर एक ही तालाब की सारी मछलियाँ खराब नही होतीं कुछ अच्छी भी होती हैं।

पी.सी.गोदियाल said...

वन्दना जी क्षमा चाहता हूँ, उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना हरगिज नहीं ! मैं भी दिल्लीवासी ही हूँ, बस आप सिर्फ कविता पढ़कर उस सत्यता को स्वीकारे जो हम दिल्लीवासी अक्सर अनुभव करते रहते है !