आशिकी जिस दर से की थी,
वहाँ बेनामियों का पनघट मिला,
दोस्ती इक समंदर से की थी,
मगर सूनामियों का झंझट मिला !
खातिर नाम के अपने उम्रभर,
हम हरगिज नहीं भागे कहीं,
पर इक नाम जब ओंठो ने पुकारा,
बदनामियों का जमघट मिला !
पाने को हम भटकते रह गए,
इक झलक हुश्न-ऐ-यार की,
जिस द्वार को भी कान हम दिए,
नाकामियों का खट-खट मिला !
लोगो से सुनी हमने भी थी,
एक मजबूर के बिकने की खबर,
मगर हमें किसी राह भी,
नीलामियों का लाग ना लपट मिला !
भावनाओं के सागर में बहते-बहते,
पहुँच गए न जाने हम कहाँ,
ठौर कर लेते पलभर किसी छोर पे,
हमको ऐसा न कोई तट मिला !
मित्रों, क्षमा चाहता हूँ कि अत्यधिक व्यस्तता के कारण ब्लॉग को समय नहीं दे पा रहा, आज ब्लॉग जगत पर कुछ लेखो के आगे मुहतोड़ टिपण्णी देने का भी मन किया था, मगर समय .....!
Wednesday, April 14, 2010
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16 comments:
बहुत खूब बहुत खूब अच्छी रचना है।
अच्छी रचना...
मुंहतोड़ टिप्पणियां जरूर दिया कीजिये..पढ़ने में अच्छी लगती हैं..
जिस द्वार को भी कान हमने दिए, नाकामियों का खट-खट मिला !
बहुत अच्छा प्रयोग।
बहुत खूब !!
हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.
बहुत सही, शुभकामनाएं.
रामराम.
दोस्ती इक समंदर से की थी,
मगर सूनामियों का झंझट मिला
बहुत ही उत्तम!
"लोगो से सूनी हमने भी थी, एक मजबूर के बिकने की खबर,
मगर हमें किसी राह भी, नीलामियों का लाग ना लपट मिला!
भावनाओं के सागर में बहते-बहते, पहुँच गए न जाने हम कहाँ,
ठौर कर लेते पल भर को किनारे पे, हमें ऐसा न कोई तट मिला !"
खतरनाक अभिवयक्ति है जी भावनाओं के साथ हुए खिलवाड़ की!
और रही बात आपकी टिप्पणी की तो वो किसी को पाथ दिखाती है और किसी को औकात दिखाती है!करते रहिएगा,अच्छी तो लगती ही है...
कुंवर जी,
बहुत बढ़िया
बेनामियों के पनघट का जवाब नहीं ..।
बढिया रचना है।बधाई।
बहुत अच्छी रचना है।
आपकी मुँहतोड़ टिप्पणियाँ बहुत अच्छी लगती हैं ...
आपकी रचना भी बहुत अच्छी लगती है .... हमें तो दोनो ही चाहिएं ...
ठौर कर लेते पलभर किसी छोर पे,
हमको ऐसा न कोई तट मिला !
कहते हैं , ढूँढने से तो भगवान भी मिल जाते हैं। :)
बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
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