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Monday, November 2, 2009

तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !


सुन्दर सा वह उनका आशियाना लगा,
जग सारा ही अपना घराना लगा !
कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
जाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!

अब तक जी रहे इसी गफ़लत मे थे,
कि होता नही कोई किसी का यहां !
पलभर जो शकूं उनके आंचल मे मिला,
तो अपना हमे सारा जमाना लगा !!

बिठा अंगना मे पसरे गुलाब के झुरमुट,
और अपनी घनी जुल्फ़ो की छांव तले !
हौले से जो गुनगुनाया उस कमसिन ने,
हमको अपना ही कोई तराना लगा !!

घडीभर के लिये मुस्कुरा भी दिये वो
नजरें चुराकर कुछ मेरी नादानियों पर !
मगर हमको तो वह भी महज उनका,
दिल को बहलाने का इक बहाना लगा !!

यूं तो गम की दवा पीकर ही गुजार दी,
हमने भी यहां अपनी तमाम जिन्दगी !
सुरूर जो साकी के परोसे हुए जाम मे था,
हमें ऐसा न कोई मयखाना लगा !!

सोचता था अब तक कि इस जहां मे,
अकेला मैं ही दर्द-ए-गम का मारा हूं !
जिसे समझता था मै किसी गम की दवा,
वह खुद ही गमों का खजाना लगा !!

हुआ जब रुखसत तु उनकी महफिल से,
कुछ पल ठहरने के बाद ’गोदियाल’ !
छ्लका जो दर्द उनकी आंखो से था वो,
तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !!

18 comments:

महफूज़ अली said...

सुन्दर सा वह उनका आशियाना लगा,
जग सारा ही अपना घराना लगा !
कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
जाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!


wah! pahli pankti ne hi dil chhoo liya....

हुआ जब रुखसत तु उनकी महफिल से,
कुछ पल ठहरने के बाद ’गोदियाल’ !
छ्लका जो दर्द उनकी आंखो से था वो,
तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !!

bahut hi khoobsoorat.......

श्यामल सुमन said...

जग सारा अपना लगे अच्छा लगा विचार।
बेहतर रचना बन पड़ी लिखा खूब सरकार।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

M VERMA said...

कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
जाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!
गौर से देखिये वह दर गैर का नहीं होगा.
बहुत सुन्दर

cmpershad said...

तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !
वही- शमा पे निसार परवाना लगा :)

निर्मला कपिला said...

pooree racanaa bahut sundar hai shubhakamanayen

अम्बरीश अम्बुज said...

यूं तो गम की दवा पीकर ही गुजार दी,
हमने भी यहां अपनी तमाम जिन्दगी !
शुरुर जो शाकी के परोसे हुए जाम मे था,
हमें ऐसा न कोई मयखाना लगा !!
bahut sundar...
waise shaki ki jagah saki hona chahiye...

अम्बरीश अम्बुज said...

पी.सी.गोदियाल said...
अमरीश जी बहुत सुन्दर, ब्लॉग्गिंग की यह नई स्टाइल भी पसंद आई ! मेरे ब्लॉग पर अगर आपने मजाक न किया हो तो आपको बतान उचित समझता हूँ कि साकी का मतलब है जो मधुबाला मयखाने में शराब परोसती है !और अगर मजाक किया हो please अन्यथा न लेना !

maaf kijiyega sir, mera naam ambarish hai....
majak nahi kiya tha sir... maine wahi meaning samajh kar "saki" kaha tha... agar "shaki" ka koi aur meaning ho to kripya samjhaane ka kasht karein..

पी.सी.गोदियाल said...

अम्बरीश जी सर्वप्रथम आपके नाम को गलत पढने के लिए क्षमा ! पहले मैं आपकी बात का मतलब ठीक से नहीं समझ पाया था, मैं समझा कि आप 'सखी' शब्द इस्तेमाल करने को कह रहे है ! आप बिलकुल सही है सही शब्द "साकी"(पिलाने वाली) होना चाहिए न कि "शाकी" (शिकायत करने वाली) , लेकिन अक्सर लोग इन दो शब्दों में इतना भेद नहीं करते और वही गलती मैंने की ! आपके सजेशन के लिए आपका हार्दिक शुक्रिया और मैंने गलती सुधार ली है !

अजय कुमार झा said...

बहुत खूब गोदियाल साहब..आपकी दोनो अदा पसंद आयी..पोस्ट वाली भी और टीप वाली भी .....चलिये मैं भी चलते चलते एक मजाक..नहीं नहीं जी गंभीरतापूर्वक.. कह देता हूं...आपने सुरूर को शायद शुरूर लिखा है..जब साकी ठीक करें तो इसे भी..
आपका ये अंदाज खूब भाया..आगे प्रतीक्षा रहेगी..

पी.सी.गोदियाल said...

अजय जी, सच में आपकी टिपण्णी पाकर मैं गदगद हूँ कि आप लोगो ने इस नाचीज की रचना को इतने गौर से पढा ! आपका सुझाव सर आँखों पर और मैंने वह गलती भी सुधार की है, देखा जाए तो इन्सान ऐसे ही तो सीखता है और गलतियां सुधारता है !

परमजीत सिँह बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।

हुआ जब रुखसत तु उनकी महफिल से,
कुछ पल ठहरने के बाद ’गोदियाल’ !
छ्लका जो दर्द उनकी आंखो से था वो,
तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !!

बहुत खूब !!

AlbelaKhatri.com said...

बहुत ही उम्दा कविता...........

दिल के आस पास से गुज़रती हुई कविता,,,,,,,,

कविता की कोमलता और सौन्दर्य लिए हुए

एक नवेली कविता........

________अच्छी लगी आपकी कविता
बधाई !

अम्बरीश अम्बुज said...

shukriya..

ओम आर्य said...

बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत सुन्दर रचना!बधाई!

विनोद कुमार पांडेय said...

यूं तो गम की दवा पीकर ही गुजार दी,
हमने भी यहां अपनी तमाम जिन्दगी !
सुरूर जो साकी के परोसे हुए जाम मे था,
हमें ऐसा न कोई मयखाना लगा !!

हर लाइन जोरदार..उम्दा रचना...बधाई!!

अपूर्व said...

कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
जाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!

...सच मे..जिंदगी भी तो कुछ ऐसी ही है..है न !!..उदासी के धुँए मे लिपटी एक खूबसूरत पंक्तियाँ..खासकर आखिरी वाली तो बेहद दिलफ़रेब हैं..और उस पर यह चित्र.....

Udan Tashtari said...

अरे गोदियाल साहब

क्या खूब रचा है. हम तो एक साथ दो बार बाँच गये:

सोचता था अब तक कि इस जहां मे,
अकेला मैं ही दर्द-ए-गम का मारा हूं !
जिसे समझता था मै किसी गम की दवा,
वह खुद ही गमों का खजाना लगा !!

-सच के कितना करीब...सुन्दरता से भाव उभारे हैं, बधाई. और रचनाएँ लाईये.

Udan Tashtari said...

कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
जाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!


-वाह!!