तुम्हे तो मालूम है कि
समय कितना बलवान होता है
पल-पल, हर घड़ी,
इसलिए तूम भी समय बनो,
और अगर समय नहीं बन सकते,
तो कम से कम घड़ी तो बनो,
वह घड़ी, जो दूसरो को समय बताती है !
तुम्हे तो मालूम है कि
यहाँ इतनी आसान नहीं है
जीवन की डगर ,
तुम किसी की राह बनो,
और अगर राह नहीं बन सकते,
तो कम से कम छडी तो बनो,
वह छडी, जो दूसरो को राह दिखाती है !
तुम्हे तो मालूम है कि
यहाँ रिश्तो की क्या अहमियत है
बंधने के लिए,
तुम किसी का रिश्ता बनो,
और अगर रिश्ता नहीं बन सकते,
तो कम से कम कडी तो बनो,
वह कडी, जो रिश्तो को रिश्तो से निभाती है !
तुम्हे तो मालूम है कि
यहाँ साँसों की डोर की क्या अहमियत है
जिंदा रहने के लिए,
मैं जानता हूँ कि तुम,
किसी की साँसों की डोर नहीं बन सकते,
मगर कम से कम लड़ी तो बनो,
वह लड़ी, जो साँसों की डोर को जीना सिखाती है !
Thursday, September 24, 2009
Thursday, September 17, 2009
कशिश !
आज लिखने के लिए कुछ नहीं मिला तो यह छोटी सी नज्म कह लो या गजल , प्रस्तुत है:
इक मोड़ पे लाकर छोड़ दिया,
हमसे क्यों इतने खफा निकले !
कुछ खोट हमारी वफ़ा में था,
जो इस कदर बेवफा निकले !!
हमको तुम पर ऐसा यकीन था,
न छोडोगे ताउम्र साथ हमारा !
बीच राह में छोड़ के जालिम,
खामोश यों इस दफा निकले !!
पहलू में चले थे हम बनने को,
इक खुबसूरत सी गजल तुम्हारी !
इल्म न था कि लिखे जायेंगे जिस
सफे पर हम, टूटा वो सफा निकले!!
हमने तो कर दिया था अपना,
हर इक पल कुर्बान तुम्ही पर !
सोचा न कभी हाशिये पर अपना ,
जीने का यह फलसफा निकले!!
समझ न पाए अब तक हम,
दस्तूर बेरहम जमाने का !
नुकशान निर्दोष के खाते में,
और दोषी का नफा निकले!!
इक मोड़ पे लाकर छोड़ दिया,
हमसे क्यों इतने खफा निकले !
कुछ खोट हमारी वफ़ा में था,
जो इस कदर बेवफा निकले !!
हमको तुम पर ऐसा यकीन था,
न छोडोगे ताउम्र साथ हमारा !
बीच राह में छोड़ के जालिम,
खामोश यों इस दफा निकले !!
पहलू में चले थे हम बनने को,
इक खुबसूरत सी गजल तुम्हारी !
इल्म न था कि लिखे जायेंगे जिस
सफे पर हम, टूटा वो सफा निकले!!
हमने तो कर दिया था अपना,
हर इक पल कुर्बान तुम्ही पर !
सोचा न कभी हाशिये पर अपना ,
जीने का यह फलसफा निकले!!
समझ न पाए अब तक हम,
दस्तूर बेरहम जमाने का !
नुकशान निर्दोष के खाते में,
और दोषी का नफा निकले!!
Thursday, September 10, 2009
जब-जब इंसान की मति मारी गई !
सुख-चैन, यश-कीर्ति, मान-मर्यादा सारी गई,
धरा पर जब-जब इंसान की मति मारी गई !
भोग-विलासिता में चूर मत भूल, अरे नादान,
मरणोपरांत मान्धाता की लंगोट भी उतारी गई !!
दौलत के नशे में खो दिया तुमने अपना धैर्य,
छल-कपट की छाँव में पाकर यह सारा ऐश्वर्य !
टिकता नहीं फरेब बहुत दिनों तक, याद रख,
पाप की कमाई यहाँ अक्सर जुए में ही हारी गई !!
जिस दम पर उछल रहे हो अपने आहते में,
हिसाब सब दर्ज हो रहा वहाँ, उसके खाते में !
छुपा नहीं कुछ भी उसकी नजरो में, ध्यान रहे,
हर एक हरकत तुम्हारी उसके द्वारा निहारी गई !!
सुख-चैन, यश-कीर्ति, मान-मर्यादा सारी गई,
धरा पर जब-जब इंसान की मति मारी गई !
भोग-विलासिता में चूर मत भूल, अरे नादान,
मरणोपरांत मान्धाता की लंगोट भी उतारी गई !!
धरा पर जब-जब इंसान की मति मारी गई !
भोग-विलासिता में चूर मत भूल, अरे नादान,
मरणोपरांत मान्धाता की लंगोट भी उतारी गई !!
दौलत के नशे में खो दिया तुमने अपना धैर्य,
छल-कपट की छाँव में पाकर यह सारा ऐश्वर्य !
टिकता नहीं फरेब बहुत दिनों तक, याद रख,
पाप की कमाई यहाँ अक्सर जुए में ही हारी गई !!
जिस दम पर उछल रहे हो अपने आहते में,
हिसाब सब दर्ज हो रहा वहाँ, उसके खाते में !
छुपा नहीं कुछ भी उसकी नजरो में, ध्यान रहे,
हर एक हरकत तुम्हारी उसके द्वारा निहारी गई !!
सुख-चैन, यश-कीर्ति, मान-मर्यादा सारी गई,
धरा पर जब-जब इंसान की मति मारी गई !
भोग-विलासिता में चूर मत भूल, अरे नादान,
मरणोपरांत मान्धाता की लंगोट भी उतारी गई !!
Sunday, September 6, 2009
बेदर्दी तू तो अंबर से है !
गगन से रातों मे जब-जब ,
ये निर्मोही घन बरसे है,
इक विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है !
गर सूखा जगत तनिक,
रह भी जाता तो क्या नीरद,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
विराग का दंश सहते-सहते जब,
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडकर नीर नयनों का,
यत्र-तत्र बिखेर जाता है !
एक वह है जो थामे अंसुअन,
मूक ममत्व निभाती घर से है,
तू क्या जाने व्यथा विरहा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
पसार अपने आंचल को पूरा,
देती ममता सारे घर को है,
तेरे दामन की छांव तो यहां,
मिलती बस पलभर को है !
लुट्वा सर्वस्व अपना फिर भी,
खाती ठोकर दर-बदर से है,
तू क्या जाने टीस तरुणा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
कभी आकर देख जरा धरा पर,
इक विरहन कैसे जीती है,
दूजे के मुख देकर मुस्कान,
स्व अंसुअन कैसे पीती है !
इक बस यहां अपने देश मे,
सावन तो कहने भर से है,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
ये निर्मोही घन बरसे है,
इक विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है !
गर सूखा जगत तनिक,
रह भी जाता तो क्या नीरद,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
विराग का दंश सहते-सहते जब,
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडकर नीर नयनों का,
यत्र-तत्र बिखेर जाता है !
एक वह है जो थामे अंसुअन,
मूक ममत्व निभाती घर से है,
तू क्या जाने व्यथा विरहा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
पसार अपने आंचल को पूरा,
देती ममता सारे घर को है,
तेरे दामन की छांव तो यहां,
मिलती बस पलभर को है !
लुट्वा सर्वस्व अपना फिर भी,
खाती ठोकर दर-बदर से है,
तू क्या जाने टीस तरुणा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
कभी आकर देख जरा धरा पर,
इक विरहन कैसे जीती है,
दूजे के मुख देकर मुस्कान,
स्व अंसुअन कैसे पीती है !
इक बस यहां अपने देश मे,
सावन तो कहने भर से है,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
बेदर्दी तू तो अंबर से है !
गगन से रातों मे जब-जब ,
ये निर्मोही घन बरसे है,
इक विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है !
गर सूखा जगत तनिक,
रह भी जाता तो क्या नीरद,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
विराग का दंश सहते-सहते जब,
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडकर नीर नयनों का,
यत्र-तत्र बिखेर जाता है !
एक वह है जो थामे अंसुअन,
मूक ममत्व निभाती घर से है,
तू क्या जाने व्यथा विरहा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
पसार अपने आंचल को पूरा,
देती ममता सारे घर को है,
तेरे दामन की छांव तो यहां,
मिलती बस पलभर को है !
लुट्वा सर्वस्व अपना फिर भी,
खाती ठोकर दर-बदर से है,
तू क्या जाने टीस तरुणा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
कभी आकर देख जरा धरा पर,
इक विरहन कैसे जीती है,
दूजे के मुख देकर मुस्कान,
स्व अंसुअन कैसे पीती है !
इक बस यहां अपने देश मे,
सावन तो कहने भर से है,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
ये निर्मोही घन बरसे है,
इक विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है !
गर सूखा जगत तनिक,
रह भी जाता तो क्या नीरद,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
विराग का दंश सहते-सहते जब,
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडकर नीर नयनों का,
यत्र-तत्र बिखेर जाता है !
एक वह है जो थामे अंसुअन,
मूक ममत्व निभाती घर से है,
तू क्या जाने व्यथा विरहा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
पसार अपने आंचल को पूरा,
देती ममता सारे घर को है,
तेरे दामन की छांव तो यहां,
मिलती बस पलभर को है !
लुट्वा सर्वस्व अपना फिर भी,
खाती ठोकर दर-बदर से है,
तू क्या जाने टीस तरुणा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
कभी आकर देख जरा धरा पर,
इक विरहन कैसे जीती है,
दूजे के मुख देकर मुस्कान,
स्व अंसुअन कैसे पीती है !
इक बस यहां अपने देश मे,
सावन तो कहने भर से है,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!
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