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Sunday, September 6, 2009

बेदर्दी तू तो अंबर से है !

गगन से रातों मे जब-जब ,
ये निर्मोही घन बरसे है,
इक विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है !

गर सूखा जगत तनिक,
रह भी जाता तो क्या नीरद,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!

विराग का दंश सहते-सहते जब,
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडकर नीर नयनों का,
यत्र-तत्र बिखेर जाता है !

एक वह है जो थामे अंसुअन,
मूक ममत्व निभाती घर से है,
तू क्या जाने व्यथा विरहा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!

पसार अपने आंचल को पूरा,
देती ममता सारे घर को है,
तेरे दामन की छांव तो यहां,
मिलती बस पलभर को है !

लुट्वा सर्वस्व अपना फिर भी,
खाती ठोकर दर-बदर से है,
तू क्या जाने टीस तरुणा की,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!

कभी आकर देख जरा धरा पर,
इक विरहन कैसे जीती है,
दूजे के मुख देकर मुस्कान,
स्व अंसुअन कैसे पीती है !

इक बस यहां अपने देश मे,
सावन तो कहने भर से है,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

"गगन से रातों मे जब-जब ,
ये निर्मोही घन बरसे है,
इक विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है !
गर सूखा जगत तनिक,
रह भी जाता तो क्या नीरद,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!"

गोदियाल जी!
आपकी शिकायत वाजिब है। रचना बहुत सुन्दर है।
बधाई!

Mithilesh dubey said...

बहुत खुब प्रभावशाली लाजवाब रचना। बेहतरिन रचना के लिए बधाई.......