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Monday, December 5, 2011

पशोपेश !






मुकद्दर की लकीरों से
तेरे नाम के महल का

एक ख़ूबसूरत आरेखण

मैंने भी सजाया था,

और चला था मैं

हिमालय के ठीक सामने

यादों की वह

मनचाही

ऊँची मीनार

खडी करने !

मगर दिल के जज्बात

कब इन्तकामी हो गए,

नहीं मालूम !!







2 comments:

Rajeeva Khandelwal said...

प्रिय पी.सी.गोदियाल "परचेत" जी,,
आपके द्वारा मेरे पोस्ट संसद पर हमले की दसवीं बरसी: अफजल गुरू पर फॉसी के लिए अनशन क्यों नहीं? पर की गयी तीखी टिपण्णी के लिए धन्यवाद् आप ऐसे ही हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे तो हमारा उत्साह, विश्वाश के साथ ही विषयों की समझ भी बढ़ेगी.
इसी बहाने आपके ब्लॉग पर भी आना हुआ. साहित्य के क्षेत्र में बहुत अछि पकड़ है आपकी.
बहुत अच्छी रचनाये..
आपके निरंतर इसी तरह के सहयोग की अपेक्षा के साथ ..
जय राम जी की

avanti singh said...

bahut hi umda rachna hai....