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Friday, June 19, 2009

मैं गजल समझ के गा गया !

महफिल में फनकारों का दिल पर,
कुछ रोब ऐसा छा गया,
लिखी तो वह इक नज्म थी,
पर मैं गजल समझ के गा गया !

मुखड़े व अंतरे के संग जाने कब,
नज्म के मिसरे गुम हुए,
बीच नग्मों की बौछार दिल को,
इस कदर कोई भा गया !

इजहार करने का ढंग अपना,
इतना रवायती का शिकार है,
बसाते ही तस्वीर नजरो में,
कोई कहर जिगर पे ढा गया!

कहने को यू तो बातो के सैलाब,
लिए फिरते थे हम सीने में,
मिले जब तो,ओंठ कंपकपाते रह गए,
और मैं खुद में ही समा गया!

निहारते ही रहे बस टुकुर-टुकुर,
जुबाँ से कुछ न कह सका,
ढूंढते फिर रहे हम तो सकून थे,
कमवक्त नींद ही उड़ा गया!
-गोदियाल

1 comment:

pooja joshi said...

such a to gud sir kya lekhani hai aapki...