उद्विग्न,शिशिर,तिमिर व्योम की भी आँखे भर-भरा आई,
प्रीति पर ग्रहण लगा, जब निष्कपट प्रेम बीच धरा आई !
तोड़ डाला बेदर्दी से निष्ठुर ने, आशिक-मासुका का दिल,
जननी धीर की, क्यों उसको उनपर, रहमत न जरा आई !
दिनकर चला था करने,दीदार उसके हुस्नो-शबाब का,
योवन की इक लहर आई, शशि बनके अप्सरा आई !
सज-संवर,खिले मुख यों सम्मुख खड़ी थी आदित्य के,
ज्यों नज़्म फिर घूमकर वापस मुखड़े पे अंतरा आई !
इत्तेफाक देखता रहा चिलमन में दम तोडती संवेदना 'परचेत',
प्रेम-बंधनों में विरक्ति लाने की यह कैसी परम्परा आई !