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Friday, November 18, 2011

वृद्धत्व व्यथा !

उजड़ी-उजड़ी,

बिखरी गुमसुम सी

वह बगिया जिसमें,

फूलों की चाहत में

मिलकर बोये थे

इने-गिने बीज हमने कभी ,

पता नहीं शूल कैसे उग गए वहाँ !

यूं तो उन्हें अब

उपेक्षित ही रखता हूँ,

मगर राह चलते कमवक्त

वक्त-बेवक्त पैरों को

जख्म दे ही जाते है!

तुम्हारी हिदायतों के मध्यनजर

शब्द तो अक्सर खामोश ही रखे मैंने,

किन्तु जाने क्यों

चंद अश्रुओं के झुण्ड,

डगर पर चहलकदमी को

फिर भी निकल ही पड़ते है !!

2 comments:

Always Unlucky said...

I recently came across your blog and have been reading along. I thought I would leave my first comment. I don’t know what to say except that I have loved reading. Nice blog. I will keep visiting this blog very often.Welcome to my site .

From everything is canvas

प्रेम सरोवर said...

सुन्दर प्रस्तुति |मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वगत है । कृपया निमंत्रण स्वीकार करें । धन्यवाद ।