मन-बुद्धि में धन,शोहरत के,चढ़ गए खुमार सारे,
जिस्म दुर्बल नोचने को, हैं गिद्ध,वृक तैयार सारे।
बर्दाश्त न थी पलभर जुदाई, परम जिस दोस्त की,
वक्त ने जब चाल बदली, दलबदल गए यार सारे।
खो रहा निरपराध भी अब,हक़ अपनी फरियाद का,
रहनुमा बनकर रह गए, वतन के गुनहगार सारे।
जाति,मजहब उन्माद में, है आवाम रंगी जा रही,
नाकाम बनकर रह गए, अमन के हथियार सारे।
कर्तव्यनिष्ठा रह गई, इन्तजामियों की दास बनकर,
हो रहे तंत्र की कब्र में दफ़न,इनके भ्रष्टाचार सारे।
दामन शिष्टता का भी ले गई, निर्लज्जता चीरकर,
नाटे पड़े 'परचेत'अब,इनके लिए तिरस्कार सारे।
छवि गूगल से साभार !
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