क्षमा चाहता हूँ कि कल रात को शहीदी दिवस यानि ३० जनवरी हेतु एक कविता लिखने बैठा था और गलती से सेव करते हुए पब्लिश का बटन क्लिक कर गया था ! खैर, वैंसे तो रविवार को वक्त कम ही मिलता है, लेकिन आज मेरे पास वक्त ही वक्त था, इसलिए आज ही इसे पूरा कर यहाँ आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ ;
आग लगाना चाहता हूँ,
देश-प्रेम की नई वतन में,
अलख जगाना चाहता हूँ।
अशक्त जन का हो रहा,
प्राबल्य सद्सद्विवेक नाश,
घर कर बैठे मन में भय को,
दूर भगाना चाहता हूँ॥
परिवार एवं बंशवाद का,
हम पर कोई राज न हो,
देश तमाम में जनमानस,
रोटी को मोहताज न हो।
प्रतिरूप हो जिसमे प्रजा का,
राज वो पाना चाहता हूँ,
देश-प्रेम की नई वतन में,
अलख जगाना चाहता हूँ॥
महाभारत के कौशल में,
उपोद्घात न कोई छक्कों का,
जन्नत और न बने अब यह,
लुच्चे, चोर-उचक्कों का।
अस्मिता का मातृभूमि की,
गीत मैं गाना चाहता हूँ,
देश-प्रेम की नई वतन में,
अलख जगाना चाहता हूँ॥
इंसाफ पाने की अभिलाषा,
दीन से हरगिज दूर न हो, खुदकुशी करने को कृषक,
अपना कोई मजबूर न हो।
उपजी युवा दिलों की
कुंठाओं को दबाना चाहता हूँ,
देश-प्रेम की नई वतन में,
अलख जगाना चाहता हूँ॥
क्षुद्र सियासी लाभ हेतु,
इंतियाज न कोई संचित हो,
सम-सुयोग मिले सबको,
हक़ से न कोई वंचित हो।
ऊँच-नीच, धर्म-जाति का,
हर भेद मिटाना चाहता हूँ,
देश-प्रेम की नई वतन में,
अलख जगाना चाहता हूँ॥
हर घर में यहाँ रोज
क्रिसमस, ईद और दीवाली हो,
देश के कोने-कोने में,
सुख-समृद्धि व खुशहाली हो।
शहीदों के सपनों का सच्चा,
स्वराज मैं लाना चाहता हूँ,
देश-प्रेम की नई वतन में,
अलख जगाना चाहता हूँ॥
छवि गूगल से साभार !
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