इस रंगशाला के हम मज़ूर
कोई कुशल, कोई अकुशल,
कोई तन-मन से,
कोई अनमन उकताया सा,
निभा तो रहे किन्तु सब
अपना-अपना किरदार !
पर्दा उठते ही अभिनय शुरू
और गिरने पर ख़त्म !!
मगर कभी-कभी कम्वक्त
मुंह बायें खडा यक्ष-प्रश्न
मन उद्द्वेलित कर जाता है;
कि क्या उचित है तब, जब
रंगकर्मी ही तंग आ जाए
किरदार निभाते-निभाते;
समर्पण अथवा परित्याग ?
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