छंट गया धरा से शिशिर का सघन कुहा ,
सितारों से सजीला तिमिर में गगन हुआ।
भेदता है मधुर कुहू-कुहू का गीत कर्ण,
आतप मंदप्रभा का हो रहा अपसपर्ण।
लाली ने छोड़ दी अब ओढ़नी पाख्ली,
मधुकर ने फूल से मधु-सुधा चाख ली।
डाल-पल्लव कोंपलों के रंग प्रकीर्ण है,
छटा-सौन्दर्य से हर चित माधुयीर्ण है।
जोत ने धारण किया सरसों के हार को,
उऋर्ण कर दिया अब शीत ने तुषार को।
भावे मन अमवा,महुआ की इत्रमय बयार,
सजीव बन गए सभी जवां और बूढ़े दयार।
विभूषित वसुंधरा बिखेरती पुरातन सुवर्ण,
कश्मीर से केरला, मणिपुर से मणिकर्ण।
तज सभी उद्वेग-रंज, खुशियाँ अनंत लाया,
करने पूरी मुराद ऋतुराज यह वसंत आया।।
शब्दार्थ: आतप मंद्प्रभा = सूरज की मंद किरणे, सघन कुहा= घना कुहरा,
अपसपर्ण=विस्तारण , पाख्ली = गर्म शॉल, प्रकीर्ण= भिन्न-भिन्न,
माधुयीर्ण=प्रमोद से भरा, उऋर्ण=भारमुक्त, तुषार= ओंस
छवि गुगुल से साभार !
No comments:
Post a Comment