
छवि गुगुल से साभार
दिन तन्हा तो गुजर गया,
सूनी सी रात मगर बाकी है।
मयखाना ठिकाना,
मय गम की दवा है
और हमसफ़र साकी है ।
दो पैग के बाद
परवाना सोचता है कि
उसने तो सदा ही जिन्दगी
चरागों की रोशनी पे फिदा की है।
ऐ काश ! कि ये 'अर्थआवर' भी
सदा के लिए ही हो जाता।
अपना भी बड़े दिनों से चल रहा
मंदी का दौर ख़त्म हो जाता।
11 comments:
waah, bahut khoob sirji,
ऐ काश ! कि ये 'अर्थआवर' भी..vese ye din bhi jyada door nahi rah gaye he..
गर्मियों में तो अब रोज़ ही अर्थ आवर होने वाला है ।
अपना भी बड़े दिनों से चल रहा
मंदी का दौर ख़त्म हो जाता।
समय बहुत बलवान है!
वक्त सदा एक सा नहीं रहता है!
nice
अजी इस 'अर्थआवर' के मामले मै तो हमारा देश दुनिया भर मै पहले स्थान पर आयेगा, क्योकि लाईट आती ही नही... तो जाये गी केसे?
भारत की पिचानवे प्रतिशत जनता तो हमेशा ही अर्थ आवर मनाती है.
ऐ काश ! कि ये 'अर्थआवर' भी
सदा के लिए ही हो जाता।
अपना भी बड़े दिनों से चल रहा
मंदी का दौर ख़त्म हो जाता।
खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..
क्या बात है भाई..इस पर तो बैठक बनती है,..जबरदस्त!!
bhagwaan ne chaha to sab thik ho jayega
isko dusre najriye se bhi samajh sakte h
bilkul-bilkul....
बहुत खूब क्या बात कही है गौदियाल जी ....
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