कुछ अलग सा कहती है
एक सडक वो,
गन्तव्य की ओर बढते हुए,
मैने देखा था
जिस सडक को,
अपने में
अनेकों भिन्नता लिए,
उदास सी,
अधेड चेहरे पर
कुछ खिन्नता लिए,
मैं एक टक, बस एक टक,
उसे ही देखे जा रहा था ।
किस तरह वह,
समेटने की कोशिश मे लगी थी
अपने फटे सीमित आंचल मे,
हर उस पैदल, साइकिल,
दुपहिया, तिपहिया,कार,
बस और ट्रक सवार को,
और तो और,
ट्रैक्टर,गन्ने से लदी बग्गीय़ों
एवं जुगाड को,
एक सचेत भारतीय मां की तरह
बस,
डूबी इसी फिक्र मे,
कि कही उसके कुनवे का
कोई लाड्ला फिसल न जाये,
गिर न जाये,
किसी गड्डे इत्यादि मे,
उसकी बेवसी,
उसके आंचल की दुर्दशा देख,
मैं मंद-मंद मुस्कुरा रहा था ॥
दिन रात लग्न से,
ढोये जाती थी उन मुसाफ़िरों को,
जो अधिकांशत:
अपने-अपने
पाप धोने जा रहे थे।
या फिर लौटते मे,
पुण्य कमाने का अह्सास लिए,
खुशी-खुशी
घर वापस आ रहे थे॥
उसकी इस बेवशी पर,
मुझे मुस्कुराता देख,
वह कुछ
तिलमिला सी गई,
और मुझसे कहने लगी,
कि हंस ले बेटा तू भी,
सुन, आज मैं तुझे बताती हूं ।
वे लोग जो
भगवान् का
नाम नहीं भजते है,
जिन पर,
मुझे सवारने की
जिम्मेदारी है,
वे कुछ धर्मनिरपेक्ष,
शायद मुझे भी
साम्प्रदायिक समझते है,
क्योंकि मेरा दुर्भाग्य
कि मै,
दिल्ली से हरिद्वार जाती हूं ॥
ऐ काश, कि मैं भी
दिल्ली से मक्का
या फिर रोम जाती।
सुन्दर,
चौडी और सपाट
सडक क्या होती है,
फिर मैं तुम्हें बताती॥
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