अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम,
अपना सब कुछ वारा-न्यारा करों,
दुनिया बड़ी रंग-रंगीली है पगली,
इसे कनखियों से यूं न निहारा करो.
अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम.... !
प्यार क्या है, किसी को आता नहीं,
बेवफ़ा जहां को तो प्रेम भाता नहीं,
बहरा नहीं कोई तेरे इस शहर में,
नाम लेकर तुम यूं न पुकारा करो..
अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम....!
अक्सर ही घर के छज्जे में आकर,
दुपट्टे का पल्लू हौले-हौले हिलाकर,
शीशे को तसदीका आशिक बनाकर,
यूँ न गेसुओं को अपनी सवारा करों.
अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम....!
तनहापन में तुम ख़्वाबों में खोकर,
सिरहाने रखी तकिया को भिगोकर,
शक्ल देते हुए ख्वाइशों,ख्यालों को
ऐसे उनींदी न रतियन गुजारा करो.
अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम....!
Friday, March 11, 2011
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1 comment:
बहुत सुन्दर लिखा है.. लाजवाब...
"अजनबियों पर यूं न इस तरह तुम !".. बहुत गहरे भावो मे .
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