Friday, July 31, 2009
अहमियत-ए-प्यार !
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लौट आये पहलू में फिर से, उनके पुचकारने के बाद,
जाते भी और कहाँ भला हम, थक हारने के बाद !
प्यार की अहमियत तनिक उस ग़मख़्वार से पूछो,
मुहब्बत नसीब हो जिसे ढेरो, झक मारने के बाद !!
साहिल पे बैठ वो थामकर हाथो में चप्पू घुमाते रहे,
हमारे प्यार की कश्ती को भंवर में उतारने के बाद !
मै भला कैसे कोई हसीं ख्वाब दिल में सजा पाता,
सब्ज़ बाग़ दिखाया भी गया,मगर दुत्कारने के बाद !!
चमन-बहारों की चाह में गर्दिशों की खाक हमने छानी,
खाली हाथ लौट आये,वक्त-ए-तूफां में गुजारने के बाद !
अब तो यही कह उनका सुबह-शाम शुक्रगुजार करते है,
कि आप ही घर लौटा लाये है हमें, सुधारने के बाद !!
हाल-ए-वक्त उन पर न्योछावर कर दी सारी हसरतें,
जाम उल्फ़त पिलाये रहे गफ़लत से उबारने के बाद!
प्यार की अहमियत तनिक उस ग़मख़्वार से पूछो,
मुहब्बत नसीब हो जिसे ढेरो, झक मारने के बाद !!
Tuesday, July 28, 2009
इन्द्रदेव मेहरबान हुए भी तो...!
आसमां ने भी दिखा दिया,
अपने इन्द्रदेव क्या हस्ती है !
झमाझम बरसात हो रही,
हर तरफ सावन की मस्ती है !
पानी-पानी हो गई राजधानी,
बारिश की चर्चा हर एक ज़ुबानी !
जहां चलती थी कारे कल तक,
आज चल रही कश्ती है !
एक दिन में ये हाल हो गया,
हर बाशिंदा बेहाल हो गया !
कीचड के सैलाब में घिरकर,
डूबी सारी की सारी बस्ती है !
अब रुकती बारिश दिन-रैन नहीं,
इंसान को कहीं भी चैन नहीं !
कलतक बिनबारिश जीवन महंगा था,
अब मौत हो गई सस्ती है !
Friday, July 24, 2009
चलो, इक नया उल्फ़त का तराना ढूंढ लाते है !
आओ चले, हम भी इक नया उल्फ़त का तराना ढूंढ लाते है,
रिमझिम की ठंडी फुहारों में, मौसम वो पुराना ढूंढ लाते है !
बेचैन हर वक्त किये रहती है अब तो, ये दिल की हसरत,
कहीं दूर इसके निकलने का, उम्दा सा बहाना ढूंढ लाते है !
धुंधला गए, लिखे थे जो मुहब्बत के चंद अल्फाज हमने,
दिलों पर लिखने को फिर इक नया अफसाना ढूंढ लाते है !
हमारी जिन्दगी का हर लम्हा यूँ तो एक खुली किताब है,
खामोशियों में भी जो हकीकत लगे ऐसा फसाना ढूंढ लाते है !
दिल खोल के खर्च करने पर भी जो ख़त्म न हो ताउम्र,
समर्पण का कुछ ऐसा ही अनमोल, खज़ाना ढूंढ लाते है !
बैठ तेरी जुल्फों की घनेरी छाँव तले, फुरसत के कुछ पल,
गुजर सके जहाँ सकूँ से वह महफूज, ठिकाना ढूंढ लाते है !
Wednesday, July 22, 2009
सूरज चाँद से मिला !
आज तडके,
दूर गगन में,
एक अरसे के बाद,
फुरसत से,
सूरज अपनी महबूबा,
चाँद से मिला,
और कुछ पलों तक
दोनों एक दूसरे को
निहारते रहे, जी भर के !
भले ही उनका
यह मधुर मिलन,
देखने वालो को,
खूब भा गया !
मगर सोचता हूँ कि,
वो मिले तो आसमां में थे,
फिर धरा पर क्यों,
अँधेरा छा गया ?
फिर सोचता हूँ कि हो न हो,
ये आशिक अभी भी
पुराने ख्यालातों के है,
इनपर अभी तक,
पश्चिम का जादू नहीं चला !
वरना इसतरह,
रोशनी बुझाकर क्यों
अँधेरे मे एक दूसरे को,
प्यार करते भला ?
Tuesday, July 21, 2009
आज एक आम आदमी रोता है !
लोकतंत्र की खटिया पर जहां हर नेता,
भ्रष्टाचार की चादर ओढ़ के सोता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
आज एक आम आदमी रोता है !
कर्तव्य गौण, हुआ प्रमुख आसन,
निकम्मा, सुप्त पडा वृथा-प्रशासन !
लाज बचाती फिर रही द्रोपदी,
चीर हर रहा हरतरफ दुश्शासन !
धोये जिसने पग मर्यादा पुरुषोतम के ,
वही केवट अब दुष्ट-धूमिल पग धोता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
आज एक आम आदमी रोता है !
चुनाव बन गया इक गड़बड़झाला,
परिवारवाद का बढ़ गया बोलबाला !
न्याय माँगता फिर रहा है दुर्बल,
फरियाद न यहाँ कोई सुनने वाला !
ओंट में वातानुकूलन की, अलसाया अफसर
घोटाले की परिक्रामी कुर्सी पर पसरा होता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
आज एक आम आदमी रोता है !
कभी मुद्रास्फिती, तो कभी रिशेसन,
इसी अर्थशास्त्र में फंसा है जन-जन !
खाद्यानों के आसमान छूं रहे दाम है,
यूँ कहने को देश में है मुद्रासंकुचन !
जहां सब कुछ मंहगा, मौत है सस्ती,
गरीब अपनी लाश काँधे पे रखकर ढोता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
आज एक आम आदमी रोता है !
शर्मशार हो गई पतित नैतिकता,
शरमो-हया को खा गई नग्नता !
संस्कृति नाच रही आज पबो में,
सभ्यता बन गई समलैंगिकता !
हँसते-रोते गुजरे जो अपनों के संग ,
वह बचपन अब मदमस्त नशे में खोता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
एक अकेला आम आदमी रोता है !
-पी.सी. गोदियाल
भ्रष्टाचार की चादर ओढ़ के सोता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
आज एक आम आदमी रोता है !
कर्तव्य गौण, हुआ प्रमुख आसन,
निकम्मा, सुप्त पडा वृथा-प्रशासन !
लाज बचाती फिर रही द्रोपदी,
चीर हर रहा हरतरफ दुश्शासन !
धोये जिसने पग मर्यादा पुरुषोतम के ,
वही केवट अब दुष्ट-धूमिल पग धोता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
आज एक आम आदमी रोता है !
चुनाव बन गया इक गड़बड़झाला,
परिवारवाद का बढ़ गया बोलबाला !
न्याय माँगता फिर रहा है दुर्बल,
फरियाद न यहाँ कोई सुनने वाला !
ओंट में वातानुकूलन की, अलसाया अफसर
घोटाले की परिक्रामी कुर्सी पर पसरा होता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
आज एक आम आदमी रोता है !
कभी मुद्रास्फिती, तो कभी रिशेसन,
इसी अर्थशास्त्र में फंसा है जन-जन !
खाद्यानों के आसमान छूं रहे दाम है,
यूँ कहने को देश में है मुद्रासंकुचन !
जहां सब कुछ मंहगा, मौत है सस्ती,
गरीब अपनी लाश काँधे पे रखकर ढोता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
आज एक आम आदमी रोता है !
शर्मशार हो गई पतित नैतिकता,
शरमो-हया को खा गई नग्नता !
संस्कृति नाच रही आज पबो में,
सभ्यता बन गई समलैंगिकता !
हँसते-रोते गुजरे जो अपनों के संग ,
वह बचपन अब मदमस्त नशे में खोता है !
सवा सौ करोड़ के इस बीहड़ में यारो,
एक अकेला आम आदमी रोता है !
-पी.सी. गोदियाल
Saturday, July 18, 2009
मत भूल तू चूडी है !
इतरा न ढलते योवन पर,
हो गई अब तू बूढी है !
ढबका लगा नहीं कि टूट गई,
अरे मत भूल तू चूड़ी है !
अरे मत भूल तू चूडी है,
यह चूडी से कहे कंगना !
खनक जितना खनकना है,
फिरे बाजार या बैठ अंगना !!
क्यों भरमाये भरम रही तू,
कांच के सांचे ढली हुई है !
नीलम-पुखराज जड़े मुझमें,
तू इर्ष्या से क्यों जली हुई है ?
यहाँ हर वह जो चमकता है,
वह सोना नहीं होता है!
साथ ही रहते हम तुम दोनों,
पर हममे फर्क यही होता है !!
इक दिन टूटकर बिखरना है,
मैं कंगन फिर भी हाथ रहूंगा !
कल नई चुडियाँ खनकेगी,
और मैं उनके साथ रहूंगा !!
संवरले आज भले ही जितना,
श्रृंगार कोई वजन नही रखती !
तू चूडी है,सदा चूडी ही रहेगी,
कभी कंगन नही बन सकती !!
हो गई अब तू बूढी है !
ढबका लगा नहीं कि टूट गई,
अरे मत भूल तू चूड़ी है !
अरे मत भूल तू चूडी है,
यह चूडी से कहे कंगना !
खनक जितना खनकना है,
फिरे बाजार या बैठ अंगना !!
क्यों भरमाये भरम रही तू,
कांच के सांचे ढली हुई है !
नीलम-पुखराज जड़े मुझमें,
तू इर्ष्या से क्यों जली हुई है ?
यहाँ हर वह जो चमकता है,
वह सोना नहीं होता है!
साथ ही रहते हम तुम दोनों,
पर हममे फर्क यही होता है !!
इक दिन टूटकर बिखरना है,
मैं कंगन फिर भी हाथ रहूंगा !
कल नई चुडियाँ खनकेगी,
और मैं उनके साथ रहूंगा !!
संवरले आज भले ही जितना,
श्रृंगार कोई वजन नही रखती !
तू चूडी है,सदा चूडी ही रहेगी,
कभी कंगन नही बन सकती !!
होमगार्ड !
पिछले सात सालो से,
वह होमगार्ड था,
महानगरी की सडको पर
कहीं सरपट भागते
और कहीं पर,
कछ्वे की चाल चलते
यातायात का,
मुसलाधार बारिश में भीगकर,
चिलचिलाती हुई धूप में तपकर
वह अपने गंतव्य को
जाने वालो के लिए,
रास्ता मुहैया करवाता था !
अपना कर्तव्य निभाते
दिनभर के थके-हारे
को कल शाम,
एक तेज रफ़्तार कार ने
चौराहे पर ही
मौत की नींद सुला दिया,
और आज
सूर्य निकलते ही,
वह होमगार्ड का जवान,
नींद में ही,
कुछ अपनों के कंधो का
सहारा लेकर,
निकल पडा था अपने
अंतिम पडाव की ओर,
अभागे की किस्मत और,
आधुनिकता की
ड्राइविंग सीट बैठे
मानव की खुदगर्जी देखो,
जिनके लिए वह कल तक
चलने को रास्ता बनाता था,
उन्ही ने उसे
पूरे आधे घंटे तक
सड़क पार नही करने दी,
यह जानते हुए भी कि
अब केवल आख़िरी बार उसे,
सड़क के उस पार
जाना है !!
वह होमगार्ड था,
महानगरी की सडको पर
कहीं सरपट भागते
और कहीं पर,
कछ्वे की चाल चलते
यातायात का,
मुसलाधार बारिश में भीगकर,
चिलचिलाती हुई धूप में तपकर
वह अपने गंतव्य को
जाने वालो के लिए,
रास्ता मुहैया करवाता था !
अपना कर्तव्य निभाते
दिनभर के थके-हारे
को कल शाम,
एक तेज रफ़्तार कार ने
चौराहे पर ही
मौत की नींद सुला दिया,
और आज
सूर्य निकलते ही,
वह होमगार्ड का जवान,
नींद में ही,
कुछ अपनों के कंधो का
सहारा लेकर,
निकल पडा था अपने
अंतिम पडाव की ओर,
अभागे की किस्मत और,
आधुनिकता की
ड्राइविंग सीट बैठे
मानव की खुदगर्जी देखो,
जिनके लिए वह कल तक
चलने को रास्ता बनाता था,
उन्ही ने उसे
पूरे आधे घंटे तक
सड़क पार नही करने दी,
यह जानते हुए भी कि
अब केवल आख़िरी बार उसे,
सड़क के उस पार
जाना है !!
किसलिए ?
हो रहा असहिष्णुता का उद्भव,दिल में हमारे किसलिए,
उदर में लिए नित फिर रहा, विद्वेष प्यारे किसलिए ?
खुद ही नजरो से छुपाता फिर रहा प्रेम एवं सत्यनिष्ठा,
हर तरफ झूठ पर पैबंद लगाकर, ढेर सारे किसलिए ?
कल तक जो थे आदर्श और प्रेरणास्रोत हमारी राह के ,
बनकर हमारे बीच ही रह गए,अब वो बेचारे किसलिए ?
हर डूबते को दिया जिसने तिनके का कल तक सहारा,
आज अपनों बीच रहकर हो गए,वो बेसहारे किसलिए ?
खुदगर्जी की हद ने हमें , नींद से महरूम कर दिया,
लगाते फिर रहे अंधेरो को गले,तजके उजारे किसलिए ?
उदर में लिए नित फिर रहा, विद्वेष प्यारे किसलिए ?
खुद ही नजरो से छुपाता फिर रहा प्रेम एवं सत्यनिष्ठा,
हर तरफ झूठ पर पैबंद लगाकर, ढेर सारे किसलिए ?
कल तक जो थे आदर्श और प्रेरणास्रोत हमारी राह के ,
बनकर हमारे बीच ही रह गए,अब वो बेचारे किसलिए ?
हर डूबते को दिया जिसने तिनके का कल तक सहारा,
आज अपनों बीच रहकर हो गए,वो बेसहारे किसलिए ?
खुदगर्जी की हद ने हमें , नींद से महरूम कर दिया,
लगाते फिर रहे अंधेरो को गले,तजके उजारे किसलिए ?
Thursday, July 16, 2009
आया फिर सावन है !
बजने लगी है घंटियाँ और जल उठे
अनेको दीप पावन !
घुमड़-घुमड़कर,कही थका-थका सा,
आ गया फिर सावन ! !
दिशा-दिशा से सुनकर लोगो की
रहम की करुणामई गुजारिश !
तरस खा इन्द्रदेव ने कर दी
कही थोड़ी,कही अधिक बारिश !!
जहां कल तक थी कलियाँ मुरझाई
वहाँ आ गई है रुत सुहानी !
गली-कूचे,खेत-खलिहान,हरतरफ
दीख रहा बस बारिश का पानी !!
फूट पड़ने को बेचैन सोचता है
दूर पहाडी ढलान पर एक सोता ,
कि काश इस सुहानी घड़ी में
मेढकी ने गीत कोई गुनगुनाया होता !!
अनेको दीप पावन !
घुमड़-घुमड़कर,कही थका-थका सा,
आ गया फिर सावन ! !
दिशा-दिशा से सुनकर लोगो की
रहम की करुणामई गुजारिश !
तरस खा इन्द्रदेव ने कर दी
कही थोड़ी,कही अधिक बारिश !!
जहां कल तक थी कलियाँ मुरझाई
वहाँ आ गई है रुत सुहानी !
गली-कूचे,खेत-खलिहान,हरतरफ
दीख रहा बस बारिश का पानी !!
फूट पड़ने को बेचैन सोचता है
दूर पहाडी ढलान पर एक सोता ,
कि काश इस सुहानी घड़ी में
मेढकी ने गीत कोई गुनगुनाया होता !!
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