सुबह जागा
तो अचानक याद आया,
वो पहली मुलाकात,
दो जून याद आया,
जब तुम आई थी, मेरी कुटी पे,
चंचल, झील से दो नयना,
चेहरे पे वो कातिलाना मुस्कराहट लिए,
मैंने भी संकुचाते हुए पूछा था
जब तुम्हारा नाम ,
कुछ बलखाते ,
कुछ शर्माते हुए तुमने
अपना नाम बता भी दिया था !
सुनकर, पता नहीं अनगिनत कितने
लड्डू फूटे थे मेरे मन के अन्दर ,
फिर मैंने दूसरा सवाल दागा था
कि रहती कहाँ हो ?
कितने इत्मीनान से तुमने
घर तक पहुँचने के सारे दिशा-निर्देश
एक-एक कर मुझे समझाए थे,
और घर का पता भी दिया था !!
याद है तुम्हे ,
उस वक्त मैं चूल्हे पर,
अदगुंदे गीले आटे से बनी
रोटियाँ सेकने में लगा था ,
वो ईंट मिटटी के चूल्हे पर
धूं-धूं कर जलती लकडिया,
माथे पर छलकता पसीना ,
पीतल की परात पर गुंदा आटा,
और वो चूल्हे पर रखा तौवा काला !
जब देखो,
जला-भुना बैठा रहता है ताक में,
कैसे अपनी रोटियाँ सेकूं ,
बस इसी फिराक में,
सोचता हूँ कि इंसान भी कितना
स्वार्थी और कमीना होता है साला !!
मैं उस भट्टी का
एक अकुशल श्रमिक,
तुमने देखकर तुरंत ही भाप लिया था,
और कहा था,
हटो लाओ, मैं बना देती हूँ ,
और फिर तुम्हारे हुनर को मैं
एकटक निहारता रहा था,
वो वक्त, वो खुशनुमा हसीन लम्हें,
मुझसे भूलते नहीं भुलाए !
अरसा बीता,
वो नरम, मुलायम,
तुम्हारे हाथ की बनी,
दो जून की रोटी खाए !!
Wednesday, June 2, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
25 comments:
waah sahi hai sir 2 june aur do joon...sundar ati sundar
क्यूँ रुला दिया जी हम जैसे घर से दूर रहने वालो किरायेदारो को....
कुंवर जी,
अति सामयिक ।
प्रशंसनीय रचना ।
सिर्फ वाह.. फिर वाह-वाह-वाह-वाह .......
चलिए आपको तो नसीब हुई दो जून की रोटी.
बढ़िया संस्मरणात्मक कविता.
down to earth and pragmatic post
बहुत खूब !
वाह...........भावो को बहुत ही खूबसूरती से सन्जोया है.
vaah....2 june ko do joon se acchaa tuk milaayaa,.....is jun mahine me to aap kamaal kar rahe hain...ashaa hai is pure mahine aapki rachnaaye pahle se bhi behtar milegii.
गोदियाल साहब हम तो एक अरसे से बाहर ही रह रहे हैं .
यहाँ तो आलम यह हैं की आंटी के यहां जो पकता हैं खा लेते हैं .
वरना फिर वोही जंक फ़ूड जिन्दाबाद
वाह...........भावो को बहुत ही खूबसूरती से सन्जोया है.
भावों को बहुत खूबसूरती से पिरोया है
बहुत सुन्दर
सचमुच दिल को छू गयी दो जून की रोटी।
--------
क्या आप जवान रहना चाहते हैं?
ढ़ाक कहो टेसू कहो या फिर कहो पलाश...
बहुत खूब ,सुन्दर रचना !
चंचल रचना
वाह गोदियाल जी, ऐसी दो जून की रोटी सारी उम्र की भूख मिटा देगी। या फ़िर भूख बढ़ा देगी?
बहुत अच्छी लगी आपकी ये कविता। बधाई।
दो जून को लिखी गई यह कविता केवल दो जून को नहीं पढ़ी जाएगी। यह एक कालजयी रचना है जिसका महत्व सदियो तक कायम रहना है। बहुत-बहुत बधाई आपको।
बहुत खूबसूरती से दो जून और दो जून की रोटी का तारतम्य मिलाया है......भावनापूर्ण रचना .
bahut badhiya likha hai...
हम कल सोच ही रहे थे लिखते समय "कम से कम किसानो को तो मिलेगी रोटी एक जून" कि हमने एक जून को क्यों लिखा। दो जून को क्यों नही और पाया आखिर मे यहां लिखी एक अच्छी रचना। बहुत सुन्दर! आभार्।
यादों को दिया कविता का रूप.. सुन्दर प्रतिरूप..
.
.
.
बहुत-बहुत शुक्रिया आपका...
आके साथ-साथ हम भी चख लिये...
दो जून की रोटी !
deri se aane ki mafi chaunga...
बहुत अच्छी लगी आपकी ये कविता। बधाई।
2 जून और दो जून का यह कितना अद्भुत सन्योग है ।
Post a Comment