वो अशुभ काली रात उनकी, राह में मौत पसर गई,
लाशों के कफ़न बेच कुछ की तो जिन्दगी बसर गई!
बच गए वे जो त्रासदी में,अपंग देह का बोझ ढ़ोकर,
न्याय पाने की उम्मीद में, सदी चौथाई गुजर गई!
क़ानून, न्याय-व्यवस्था के वो बन फिरते है रहनुमा,
इंसाफ का दम भरने वाले की, आँखों से नजर गई!
आत्मसम्मान बेच माई-बाप के दर पे बिकने वाले,
कातिल की खिदमत में उनकी,न कोर-कसर गई!
पीड़ित की बददुआओ का भी इनपर, असर नहीं होता,
दुर्बल की हाय भी न जाने क्यों, यूँ ही बेअसर गई!
Thursday, June 17, 2010
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