दो बूँद गिर थे जब ,
छिटककर दूर आँखों से,
चट कर गया,
शायद वह टुकडा जमीं का बंजर था !
मिलने पडा जो ख़ाक में,
दूर दरख्त की छाव तले,
हुस्न से होकर रुखसत ,
दास्ताँ-ऐ-इश्क का अस्थिपंजर था!
घुट-घुट कर दम तोडा जिसने,
अभी कुछ पल दूर,
कोई नहीं वाकिफ कि
वह कितना भयावह मंजर था !
फूल उछलते देखा था सबने,
एक गुलाब के सा,
घाव मगर कुछ ऐसे दे गया,
फूल नही, वह कोई खंजर था !
Friday, May 15, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment