आज एक मित्र का ईमेल मिला, पूछा था कि आजकल आप कोई लेख-वेख नहीं लिखते ! जबाब देने की सोची तो ये पंक्तियाँ फूट पडी ;
सुबह शाम
ये जो भ्रष्ट,
नाक रगड़ते हैं
इतालवी जूतियों पर !
मैं अपना
कागज-कलम घिसकर
वक्त बरबाद करूँ क्यों,
इन तूतियों पर !!
ये तो बुजदिल
बेशर्म हैं,
मगर मुझे तो
आती शर्म है,
इन विभूतियों पर !
अपनी गुलाम मानसिकता
तो सुधार नहीं पाते,
और उंगली उठाते है
सामाजिक कुरीतियों पर !!
अप-शब्दों के लिए
क्षमा चाहता हूँ ,
मगर क्या करू
नियंत्रण रख नहीं पाता,
मैं अपने मन की
कटु-अनुभूतियों पर !
लिखकर भी क्या फायदा,
इन्होने तो सदा
नाक ही रगडनी है,
इतालवी जूतियों पर !!
Friday, September 10, 2010
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