सर्द मानसूनी पुरवाइयों के पैगाम बढ़ गए है,
प्रकृति के जुल्म,कातिलाना इंतकाम बढ़ गए है।
मुश्किल हो रहा अब तेरे, इस शहर में जीना,
शाम-ए-गम की दवा के भी दाम बढ़ गए है॥
तरक्की की पहचान बनी सुन्दर चौड़ी सड़कें है,
ये बात और है कि इन पर, जाम बढ़ गए है।
चुसे, पिचकाए बहुत मिलते है पटरियों पर,
इन्सां तो बचे नही, आदमी आम बढ़ गए है॥
शहर-गाँव से हुई बेदखल जबसे हया-सत्यनिष्ठा,
गली-मोहल्ले के नुक्कड़ों पर,बदनाम बढ़ गए है।
'बेईमानी' संग रचाई है, 'दौलत' ने जबसे शादी,
घरेलू उद्यमों में भी तबसे, बुरे काम बढ़ गए है॥
जन-सेवा की आड़ में अपनी तृष्णा-तृप्ति लेकर,
स्वामी-महंतों के भी कुटिल धाम बढ़ गए है।
'परचेत' कहे खुश होले, ऐ भ्रष्ठाचार की जननी,
हर तरफ, तेरे चाहने वाले तमाम बढ़ गए है॥
Friday, September 10, 2010
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