सुख-चैन, यश-कीर्ति, मान-मर्यादा सारी गई,
धरा पर जब-जब इंसान की मति मारी गई !
भोग-विलासिता में चूर मत भूल, अरे नादान,
मरणोपरांत मान्धाता की लंगोट भी उतारी गई !!
दौलत के नशे में खो दिया तुमने अपना धैर्य,
छल-कपट की छाँव में पाकर यह सारा ऐश्वर्य !
टिकता नहीं फरेब बहुत दिनों तक, याद रख,
पाप की कमाई यहाँ अक्सर जुए में ही हारी गई !!
जिस दम पर उछल रहे हो अपने आहते में,
हिसाब सब दर्ज हो रहा वहाँ, उसके खाते में !
छुपा नहीं कुछ भी उसकी नजरो में, ध्यान रहे,
हर एक हरकत तुम्हारी उसके द्वारा निहारी गई !!
सुख-चैन, यश-कीर्ति, मान-मर्यादा सारी गई,
धरा पर जब-जब इंसान की मति मारी गई !
भोग-विलासिता में चूर मत भूल, अरे नादान,
मरणोपरांत मान्धाता की लंगोट भी उतारी गई !!
Thursday, September 10, 2009
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5 comments:
Insaan ki mati baar baar mari jati hai.aur use hosh nahi rahata ki insaniyat ke naam par kaisa kaisa kritya kar raha hai..
achchi kavita..badhayi..
बहूत खूब जनाब
दौलत के नशे में खो दिया तुमने अपना धैर्य,
छल-कपट की छाँव में पाकर यह सारा ऐश्वर्य !
टिकता नहीं फरेब बहुत दिनों तक, याद रख,
पाप की कमाई यहाँ अक्सर जुए में ही हारी गई !!
सत्य का दर्पण है इन शब्दों मे सुन्दर अभिव्यक्ति...
regards
लगता है मर्यादाएँ तो श्री राम जी के साथ ही पलायन कर गई हैं।
बढ़िया कविता!
बधाई।
वाह!! क्या बात है!!
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