Saturday, April 25, 2009
मै अपने गांव गया था !
हिमछादित उपत्यकाओं
के मध्य,
जीवन दायिनी
मां गंगा के पावन तट पर,
सप्तरंग समेटे खडा,
हिमालय लिये
उदर मे सतसरोबर,
कई वर्षो बाद,
भीड भरे इस
शहर से निकलकर,
जा पहुचा सीधे,
अपने उस लाटा गांव मे !
खुशनुमा गर्मी के मौसम मे,
लाटा-लाटा सा हुआ
हर तरफ़ समा था,
छुट्टियां बिताने पहुंचा
मेरे जैसे कई लाटो का
गांवभर मे हुजूम जमा था,
दिल खुश था देखकर
वो छोटे-छोटे पौधे,
जिन्हे कभी छोड आया था
मै अकेला आते शहर,
लम्बे-लम्बे दरख्त बन चुके थे
रहकर उन चन्द,
बुजुर्ग तरुवो की छांव मे !
किसी ने उन्हें इन शहरी
पौधों की तरह,
कभी फवारे से पानी
न सींचा, और न
मदरडेरी की खाद खिलाई
जितने दिन मै वहा रुका,
देखकर उनका वो अल्हड्पन,
वो बेफ़िक्री की जिन्दगी
याद मुझे बहुत आया
अपना भी बचपन,
यही सोचता रहा
कि पेट के खातिर,
इन्सान जाने क्यो
डाल देता है खुद ही
बेडियां अपने पांव मे !
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