न मुझको अब और सता,
तु कम से कम यह तो बता
ऎ गम-ए-जिन्दगी !
दिया किसने तुझे मेरे घर का पता ?
वो अवश्य मेरा कहने को कोई,
अपना ही रहा होगा
भला गैरो को क्या जुर्रत
और कहां इतनी फुर्सत
सीधे से नाम बता दे उसका
अब और न हमदर्दी जता
ऎ गम-ए-जिन्दगी !
दिया किसने तुझे मेरे घर का पता?
बे हया ! तू भी सीधी चली आयी,
बिन बुलाये मेहमान की तरह पर,
मेरी बेबसी का तनिक तो
ख्याल कर लिया होता
माना कि है नही कोई दरवाजा,
जिसे बंद रख पाता
तुझे धक्के दे निकाल न पाया,
तो थी इसमे मेरी क्या खता ?
ऎ गम-ए-जिन्दगी !
दिया किसने तुझे मेरे घर का पता ?
Wednesday, April 1, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment