दफ्तर को निकलने की,
मारामारी में था,
कपड़े पहनकर,
जूते पहनने की तैयारी में था !
पास खड़ी श्रीमती ने,
अपनी मधुर जुबां खोली,
जूतों को हाथ लगा,
निहारती हुई बोली !
टायट लग रहे है,
कहीं काट तो नही रहे
मैंने ना में मुंडी हिलाई,
बिना कुछ कहे !
पैरो के नीचे से अचानक,
कोई आवाज आई,
और फिर इक व्यंगात्मक,
हँसी दी सुनाई !
दांया जूता बांये से
कह रहा था, मुस्कराते हुए,
अबे! इस मैडम से बोल,
अरसा हो गया लोगो को काटे हुए !
काट सकें, तुम इंसानों ने हमें,
अगर इस लायक छोड़ा होता,
तो आज जूता ख़ुद की बदनशीबी पे,
क्यो इस तरह रो रहा होता ?
सुनते आए थे कि इंसान एक घटिया,
जीव है धरा पर,
परख भी लिया अब तो हमने,
इराक,एसीसीआई के दफ्तर जाकर !
किसी के अपमान के लिए,
शस्त्र बनाया हमें सीधा-साधा देख,
ख़ुद की तस्सली के लिए
खीज निकाली किसी पर हमें फेंक!
इससे भी पेट न भरा तो ,
खुले आम हमारी बोली लगा दी !
नही बस चला तो चौराहे पर,
सरे आम होली जला दी !
कहे देते है,सीमा में रहकर,
इस्तेमाल करो वरना ,
भली भांति जानते है,
कि क्या हमें है करना !
गर अपनी पे आ गये हम भी,
उस दिन बुरी तरह घिरोगे,
किसी पोडियम के पीछे,अपने बुश और
चिदंबरम की भांति सिर बचाते फिरोगे !
Wednesday, April 8, 2009
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