कभी-कभी,
घर की ऊपरी मंजिल की खिडकी से,
परदा हटाकर बाहर झांकना भी,
मन को मिश्रित अनुभूति देता है।
दो ही विकल्प सामने होते है,
या तो चक्छुओ को
अपार आनन्द मिलता है,
या फिर, कान कटु-श्रुति पाता है ॥
ऐसे ही कल रात को,
मैने भी अपने घर की
ऊपरी मंजिल की खिडकी का
परदा सरकाकर झांका था,
बाहर बडा ही खुबसूरत सा नजारा था।
पास के घर की
एकल मंजिल की छत पर,
एक चांद टहल रहा था,
और उसके ठीक ऊपर,
आसमां से टूटने को बेताब इक तारा था॥
ठीक नीचे उस घर के आगे से
गुजरती इक गली है,
और उस गली के
एक सिरे पर खडा बिजली का खम्बा,
उस पर टंगा ब्लब,
गली मे बिखेरता उजारा था।
और उस खम्बे की ओंट मे खड़े
एक चकोर ने,
छत पर टहल रहे चांद को
सजग-कातर नजरों से निहारा था ॥
चांद ने भी
कुछ बलखाते हुए,
छत की मुन्डेर से मुस्कुराकर
उसकी तरफ़ किया एक इशारा था।
यह देख,
प्रफुलित मन से चकोर ने,
विजयी अंदाज में उंगलियाँ फेरकर
अपने लम्बे केशो को सवारा था ॥
फिर अचानक,
उस खुशमिजाजनुमा
वातावरण में एक
अजीबोगरीब खामोशी सी छा गई थी।
चकोर फुदककर
कहीं उड गया,
चांद दुबककर कहीं छुप गया,
क्योकि इस बीच कहीं से,
छत पर आमावस्या आ गई थी ॥
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